Thursday, June 27, 2013

{ २६८ } आज मन क्यों अनमना है





आज मन क्यों अनमना है।

उन्मत्त बादलों के सँग रहना
जल प्रवाह सा कल-कल बहना
डर न था कभी आँधियों से
दिशा-दिशा में उत्तुंग पेंग भरना
पर, यह अचानक हुआ क्या
हृदय का सँबल छिना है।
आज मन क्यों अनमना है।।१।।

छटपटा रही हैं भावनायें
नेह को तरसती कामनाये
अब न थमती दिख रहीं
गगन व्यापी गर्जनायें
हिल गई प्रेम की दीवार
कामना बन गई छलना है।
आज मन क्यों अनमना है।।२।।

भूल चुका गुनगुनाते पार जाना
सँग-सँग समय के मुस्कुराना
चहुँ ओर बस चर्चा यही है
क्यों हुआ निढाल ये दीवाना
साथ साहस है न तसल्ली
मीत हुआ मृग-कँचना है।
आज मन क्यों अनमना है।।३।।

---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, June 20, 2013

{ २६७ } तुम मेरे परिमाण हो






मैं परिमाण तुम्हारा हूँ
तुम मेरे परिमाण हो।

खोजा जीवन भर सुख और शान्ति
पर्वत-घाटी-शिखर-उपवन कान्ति
तुम परिणाम मे मिले प्राण हो
तुम मेरे परिमाण हो।।१।।

शारदीय सँध्या के स्वप्निल वातायन में
साँसों की वीणा पर प्राणॊं के गायन में
तुम मधुर - मोहिनी तान हो
तुम मेरे परिमाण हो।।२।।

गगन तक बिखरी चाँदनी ही चाँदनी
प्रणय का ज्वार हो रहा उन्मादिनी
तुम चपल रजनी की मादक मुस्कान हो
तुम मेरे परिमाण हो।।३।।


......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, June 10, 2013

{ २६६ } मजबूर आदमी





आदमी की रूह जितनी मजबूर है
अक्ल उसकी उतनी ही मगरूर है।

हर आदमी तिनका सा ही लगता
आदमी का कैसा दिमागी फ़ितूर है।

वक्त की मार से नाचता फ़िरता है
आदमी भी कितना हुआ मजबूर है।

फ़ाकाकशी लफ़्ज़ों से बयाँ न होती
भूख ने चेहरे को कर दिया बेनूर है।

उदासियाँ बन चुकी ज़ीस्त की साथी
फ़िर भी ज़िन्दगी पर सबको गुरूर है।

-------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, June 2, 2013

{ २६५ } सारे स्वप्न अभी अधुरे है





कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।

नदिया सदियों तक बहते-बहते
जा कर सागर में मिल जाती हैं
कलियाँ खिल कर फ़ूल बनती
पर एक दिन मुरझा जाती हैं
वैसे ही सावन आता पल भर को और पतझड अभी भी पूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे है।।१।।

आज अभावों के इस दौर मे
इंसानियत हर जगह मर रही
और इस अभाव के प्रभाव से
हैवानियत खूब पसर रही
जाहिर में जो दिखते हैं हँसते, वो भी आँसुओं से न अदूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।२।।

हम भू पर क्या लेकर आये
और क्या लेकर हम जायेंगें
मिले खुशियाँ या गम हजार
सब छोड यहाँ हम जायेंगें
बन्धन बँधे अधिकार यहाँ पर, चिपके सीने से पूरे-पूरे है।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।३।।

अग्यानी ही कहते फ़िरते
ये तेरा है और ये मेरा है
ग्यानी ही जाना करते
ये सब माया का फ़ेरा है
अहम पोषित, रागरोपित सत्य मुख-मंडल पर अपूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।४।।


---------------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


अदूरे = जो दूर न हो
अपूरे = भरपूर


{ २६४ } तुम्हे न भुला पायेंगें





तुमने हमें भुला दिया, हम न तुम्हे भुला पायेंगे
लगी है आग जो दिल में, कैसे उसे बुझा पायेंगे।

तेरी अदाओं और आँखों का नशा बसा जेहन में
तेरे इस सुरूर को हम हरगिज़ न छुडा पायेंगे।

तन्हा हो गई हैं अब मेरे दिल की तन्हाइयाँ भी
तुम्हारी इस जुदाई को हम कैसे मिटा पायेंगे।

हर शाम गुजर जाती है अब किसी मयखाने मे
बन गया हूँ रिन्द, पैमाना अब न हटा पायेंगें।

गुमनामियाँ ही अब मेरा ठिकाना बन चुकी है
दुनिया के लिये हम अजनबी कहला जायेंगें।


-------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल