Monday, June 11, 2012

{ १८६ } मुक्ति की आस





मेरे जीवन का दृष्य
सामने मेरे खडा है ऐसे
जैसे कोई
आईना और अक्स ।


बाल अवस्था,
कटी जवानी,
हरी-भरी मनभावन
और धानी-धानी ।


अब पतझड में
हूँ तन्हा-तन्हा
खडा हुआ
बिन दाना-पानी ।


मन में लिये
मूक-विश्वास
जीवन-चक्र से
मुक्ति की आस ।।


................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १८५ } इंसान और ईमान






इंसान का ईमान मर गया है
क्योंकि इंसान बिक गया है।

कुछ इंसान सस्ते में बिक जाते हैं
कुछ इंसानों की कीमत बहुत ऊँची है।

ईमान को इंसान ने
बाजार में बिकने के लिये
सजा रखा है।

इंसान का रक्त
ठँडा हो चुका है।

इंसान
अब अपने ही पसीने में
दुर्गंध महसूस करता है।

इंसान
अब ईमान की सौगंध
नही खाता।

क्योंकि
इंसान का ईमान
बिक चुका है।
मर चुका है।।

............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, June 9, 2012

{ १८४ } यही ज़िन्दगी है





जहाँ हों खुशियाँ
गम भी हों बेशुमार,
कहें इसी को ज़िन्दगी,
यही ज़िन्दगी है।
यही ज़िन्दगी है।।

बुझे दीप को,
जो लौ जलाती रहे,
कहें इसी को रोशनी,
यही रोशनी है।
यही रोशनी है।।

सजा भी न दे वो,
और खता भी छुपाये,
कहें इसी को सादगी,
यही सादगी है।
यही सादगी है।।

रहे दूर सुख में,
मगर हो साथ दुख में,
कहें इसी को दोस्ती,
यही दोस्ती है।
यही दोस्ती है।।

सँग हो पिया के,
प्यास फ़िर भी हो बाकी,
कहें इसी को तिश्नगी,
यही तिश्नगी है।
यही तिश्नगी है।।

बिना कुछ भी कहे,
अनकही जो समझे,
कहें इसी को आशिकी,
यही आशिकी है।
यही आशिकी है।।

वो शान्ति में खुश,
वो शोर में खुश,
कहें इसी को बेदिली,
यही बेदिली है।
यही बेदिली है।।

न कुछ कर सके,
न कुछ कर ही पाये,
कहें इसी को बेबसी,
यही बेबसी है।
यही बेबसी है।।


..................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, June 8, 2012

{ १८३ } प्यार का पैगाम






मोहताज नही है वो
और न ही
मैं हूँ मोहताज,
न ही है कोई अवरोध,
जो बीच में आये
हम दोनो के आस-पास।

बात दिल की दिल से
जब-जब भी कही
खनकती हुई संगीत सी
हवाओं में लहराकर
सरगम सा सँदेश बनी।

मूक भाषा में ही हम
बात करें अपने मीत से
जो न जाने
प्रीत के सिवा
और कुछ भी।

हर द्वेष से परे
एक ही जबान.
एक ही पैगाम,
प्यार का पैगाम।
प्यार का पैगाम।।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, June 7, 2012

{ १८२ } प्यार का ज़िन्दगी से कर इजहार






ज़िन्दगी की जंग में इतनी जल्दी गया तू थक हार
पतझड तो पतझड है, भार हुई तुझे बसन्त बहार।

प्यार अर्पण किया जिस को उनसे तुझे क्या मिला
अनमोल ज़िन्दगी है तेरी, अब उस से ही कर प्यार।

संग-रेज़ों को हटा अब, खारजारों को तू उखाड फ़ेंक
हो मंजिल आसान, रहगुजर कुछ ऐसी कर तैयार।

रात होने को है पर मंजिल अभी है दूर, बहुत दूर
ओ मुसाफ़िर ! कारवाँ की अपने तेज कर रफ़्तार।

महफ़िल सजे, गमगीन माहौल सुर-साज में बदले
संगीतमय प्यार का इस ज़िन्दगी से कर इजहार।


..................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १८१ } ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है





दिन की शान है
सूरज ढलने तक।

इन्सान की शान है
ज़िन्दगी के चलने तक।

हर ठौर पर साँस लेती है ज़िन्दगी,
हर दौर से गुजरती है ज़िन्दगी।

ज़िन्दगी,
अपने हर पडाव पर
खडी हो सोंच रही है--

जाना था सफ़र पर मुझे
क्यों मैं रास्ते भर बेहोश रही ?
क्यों न भ्रम की हद को पार कर
सच की सरहद छू सकी ?

ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है।
ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है।।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, June 6, 2012

{ १८० } जीवन और मृत्यु





खोखला जिस्म
उखडती साँसें
पर फ़िर भी
रुक-रुक कर
चलने की चाह जिन्दा है
शायद इसलिये
हर उम्र अपनी
पीढी को ढो रही है।

कदम लडखडाते हैं
और संभलते हैं,
उम्र ढल रही है पर
सूरज अभी तक नही ढला है।

सीने से लिपटी हुई
तमाम खुशियाँ
दम तोड देती है,
हर आस रेत सी
हाथ से फ़िसल जाती है।

जीवन की गरमी
और
मौत की ठंडक
दोनो क्षितिज के पास
जब मिलती हैं
तब गले से लग
हैरान होकर ज़िन्दगी
पूछती है मौत से,
ऐ मौत ! तू पहले क्यों न मिली,
क्यों मिली थी ज़िन्दगी ?

मौत कहती है,
ऐ ज़िन्दगी !
ढल गई उम्र तेरी
पर ढला न था सूरज तेरा।

चलो छोडो ये गिले-शिकवे
हम दोनो
यथार्थ हैं।

हम हैं
जीवन और मृत्यु।
मृत्यु और जीवन।।


........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, June 4, 2012

{ १७९ } नागफ़नी





रेत के कण-कण में
वीरानी के समन्दर में तैरता
खामोशी का लबादा
ओढ कर खडा है
एक नागफ़नी का पौधा।

ऊपर आसमान की तरफ़
देख कर
अपनी पूरी
आन बान और शान
के साथ
दृढ नागफ़नी का पौधा
मानो कह रहा है -

मैं अकेला नहीं हूँ
ये तन्हाई,
ये खामोशी,
ये वीरानी,
मेरे साथ है।।


....................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, June 3, 2012

{ १७८ } सितमगर





है अफ़सोस, ये कैसा मेरा मुकद्दर निकला
चला जो राह वो गम की रहगुजर निकला।

हर वक्त आँखों में रहा मोहब्बत का जुनूँ
उफ़, दिलबर मेरा दिल का पत्थर निकला।

उजाड बस्ती के जैसा मंजर हुआ दिल मेरा
तेरा खयाल भी तुम सा सितमगर निकला।

सफ़र-ए-हयात में तनहाई ही मेरा साथी है
दिल ने चाहा जिसे वो जाँआजार निकला।

गौरो-फ़िक्र की फ़ुरसत नही सितमगर को
कि उसके ख्वाबों से मैं क्यों कर निकला।

यूँ तो मैं शख्स हूँ बहुत ही रंगीन मिजाज
मेरा दर्द मेरी सुखनों में उभर कर निकला।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



जाँआजार = सताने वाला
गौरो-फ़िक्र = सोच-विचार
सुखन = गजल, गीत