शब्दों का क्या?
शब्द तो ढ़ेरों हैं
अर्थ भरे और निरर्थक भी,
जिसकी जैसी ज़ुबान
उसके पास वैसे ही शब्द।
कुछ शब्दों पर भरोसा है
कुछ भरोसे के काबिल नहीं,
जिन शब्दों पर भरोसा है
वह ज़ुबान से निकलते नहीं,
जिन शब्दों पर भरोसा नहीं
वे कूद-कूद कर बाहर आना चाहते हैं।
शब्दों का क्या?
शब्द अब पत्थरों की तरह
बेजान हो चलें हैं,
बस उनका इस्तेमाल किया जा रहा है,
बेवजह का उन्माद खड़ा करने के लिए।
शब्द,
शब्दों का क्या??
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल