Saturday, April 28, 2012

{ १४६ } ये ठहरे घडियाली आँसू सजाने वाले




छा गये भारत में दहशत जमाने वाले
अपने ही चमन को आग लगाने वाले।

गूँजती गुलशन में आवाज साँय-साँय
ये शख्स हर बात, हवा में उडाने वाले।

मुश्किलें आसान करना फ़ितरत नही
ये ठहरे, कोरे अफ़सोस जताने वाले।

बेचैन ज़िन्दगियों को देते नही सुकून
ये ठहरे घडियाली आँसू सजाने वाले।

कर्तव्य, देश-भक्ति से सरोकार नही
ये ठहरे सिर्फ़ तिजोरियाँ सजाने वाले।

दिल द्रवित न होते देखकर भुखमरी
ये हैं गरीबी पर अचरज जताने वाले।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ १४५ } ज़िन्दगी-ए-रिन्द




मयकदे में शराब नही है तो क्या है
मयकशी शबाब नही है तो क्या है।

वो रोज न पीने की कसम खाता है
उसका दिल खराब नही है तो क्या है।

मयकदे आ कर भी प्यासा बैठा रहूँ
तश्नगी में शराब नही है तो क्या है।

रब ने ज़िन्दगी दी है रिन्द होने को
नाखुदा ये शराब नही है तो क्या है।

दुनिया ने हमें आँसू दिये कितने ही
इलाज ये शराब नही है तो क्या है।

मयकदे मे हरतरफ़ जगमगाहट है
मयकदा आफ़ताब नही है तो क्या है।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


शबाब = पुण्य
तश्नगी = प्यास
रिन्द = शराबी
नाखुदा = नाविक
आफ़ताब = सूरज

Thursday, April 26, 2012

{ १४४ } नर-नारी




नर - नारी
नारी - नर।
नर से नारी
नारी से नर।।

नर में लगी मात्रा
पूर्ण हुई नारी।
नारी से अलग हुई मात्रा
अपूर्ण हुआ नर।।

पर फ़िर भी है
आपस में घनघोर द्वन्द,
करते रहते सभी तरह के
आपस में छल - छन्द।।

नर चाहे नारी पर
अपना शासन,
नारी कहती, पूरे करो
अपने आश्वासन।।

पर,
दोनो ही तो मूर्ख हैं
नही समझते है
कि,
साथ मिलकर ही तो
मूर्तरूप हैं।।

शिव - पार्वती मिलकर ही
अर्धनारीश्वर कहलाते।
सीता के साथ ही
राम भी पूजे जाते।।

शिव या राम में
अकेले पूर्णता का अभाव है।
पार्वती या सीता में
कहाँ अकेले समभाव है।।

अरे ! मूर्ख मनुष्यों,
नर-नारी के बीच का दुराग्रह छोडो,
आपस में मिलकर पूर्ण बनो
संसार में समता का नाता जोडो।।


...................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



{ १४३ } मै परवाना हूँ




मुझको तडपा कर तुम कभी न सुकूँ पाओगी
मैं परवाना, तुम शमा, मुझको यूँ जलाओगी।

मेरे अश्कों के सैलाब में, तुम यूँ डूबती जाओगी
दर्द-ए-ज़िन्दगी का किनारा फ़िर पा न पाओगी।

सितम करते हो मेरे हमदम, हमारी चाहतों पर
अपने दिल पे मेरी दस्तक को कैसे बिसराओगी।

मुद्दत से कर रहा हूँ तनहाइयों में तेरा इन्तजार
मेरे इश्क का पैगाम कब तक खुद से छुपाओगी।

तस्लीम तो कर ही लेंगे आप मेरा प्यार, मगर
कब शिकवे भुलाकर दस्ते-रिफ़ाकत बढाओगी।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


दस्ते-रिफ़ाकत = दोस्ती का हाथ

Wednesday, April 25, 2012

{ १४२ } गूँगे बहरों की बस्ती




गूँगे बहरों से भरी इस बस्ती में
इन मेले-जलसों का क्या काम।
काँच के घर में रहने वाले, कब
लिखते पत्थर पर अपना नाम।।

वो दिलों का फ़ैसला कर रहे हैं
पास न जिनके धडकते दिल हैं
प्यासे होठ लिये फ़िर रहे हम
मरुथलों में नही वर्षा का मुकाम।
गूँगे बहरों से भरी इस बस्ती में
इन मेले-जलसों का क्या काम।।

ख्वाब पल भर को ही सजा पर
आँख पल-पल में भीग रही है
अश्कों से हम दस्तक देते रहे
न लाया वो होठों पे मेरा नाम।
गूँगे बहरों से भरी इस बस्ती मे
इन मेले-जलसों का क्या काम।।

हम केवल मरुस्थली टीलों की
चर्चित मृगतृष्णाओं में जीते
महल वासियों ने भेजा नहीं
कभी गुलशन में आने का पैगाम।
गूँगे बहरों की इस बस्ती में
इन मेले-जलसों का क्या काम।।

कोई नहीं रहा अब यहाँ अपना
सब ही अब कहीं गुम हो गये
तीर चुक गये, न हौसला-ताकत
भुगत रहे हम अपना अंजाम।
गूँगे बहरों से भरी इस बस्ती मे
इन मेले-जलसों का क्या काम।।


............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १४१ } आशिकी की राह में




क्या अजब दीवानगी है
क्या अजब एहसास है
काँटे भी लगते फ़ूल से
आशिकी की राह में
तुम जो आए ज़िन्दगी में।

दो घडी का है यह सफ़र
प्यार मे बीते यह डगर
तू ही मेरा हमसफ़र है
आशिकी की राह में
तुम जो आए ज़िन्दगी में।

हर कदम पर सिलसिला
ख्वाब का उम्मीद का
बस प्यार ही प्यार है
आशिकी की राह में
तुम जो आए ज़िन्दगी में।

न दर्दो-गम, न वहमों-शक
नफ़रतें नहीं हैं दूर तक
सिवा प्यार के कुछ नही
आशिकी की राह में
तुम जो आए ज़िन्दगी में।

ढूँढना चाहो अगर तो
क्या नहीं मिलता यहाँ
मिल गया मेरा सनम
आशिकी की राह में
तुम जो आए ज़िन्दगी में।

....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, April 24, 2012

{ १४० } हम है मस्ताना -ए- इश्क




हम हैं मस्ताना-ए-इश्क, हममें न होशियारी है
आजाद परिन्दे हैं हम, दुनिया से हमें न यारी है।

जो बिछड गये अपने प्यार से वो दर-दर भटकते
हमारा यार हमारे दिल में है, हम को न बेजारी है।

पल भर को भी न बिछुडेंगें अपने दिलबर से हम
उनको भी इश्क हम से, अब कोई न दुश्वारी है।

इश्क में गहरे डूब चुके, इश्क में ही डूबे रहेंगें
इस दुनिया में हमें किसी से न दुश्मनी यारी है।

ये संग-ए-मील-ओ-इश्क मुझे दिखाते हैं रास्ता
इस दुनिया-ए-फ़ानी में इश्क कहीं न बेशुमारी है।


..................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

मस्ताना-ए-इश्क = इश्क मे डूबे हुए
बेजार = बीमार
संग-ए-मील-ओ-इश्क = इश्क के रास्ते के मील के पत्थर
दुनिया-ए-फ़ानी = समाप्त होने वाली दुनिया


{ १३९ } परिवार




परिवार क्या है?
झुन्ड क्या है?

क्या इन दोनो
में कोई अन्तर है?

बौद्धिक क्षमता वाले
मनुष्य के विचार से
इन दोनो में
अन्तर अवश्य है।

परिवार में मनुष्य रहते हैं,
और झुन्ड में जानवर।

मनुष्य.....
विचारवान, संवेदनशील, अनुभवी
और बहुत चालाक प्राणी है।
वह अपना परिवार बनाता भी है
और खुद ही बिगाडता भी है।

मनुष्य का परिवार
उसके मुताबिक चलता है।
उसका जिससे मन मिला
उसको परिवार में शामिल किया
और जिससे मन बिगडा
उसको परिवार से अलग कर दिया।

या जो सक्षम हुआ
उसने अपना परिवार
अपने मन मुताबिक
अलग बना लिया।

यानी,
सब कुछ
मनुष्य की सोंच पर
निर्भर करता है।

परन्तु जानवर.....

जानवर तो झुन्ड मे ही चलेगा
आपस में लडेगा भिडेगा
फ़िर झुन्ड में साथ साथ चलेगा।

मिल कर शिकार करेगा
मिल कर ही खायेगा
और
साथ-साथ, मिलकर ही विश्राम करेगा।

अपना आशियाना कभी भी
झुन्ड से अलग नही करेगा।

काश !

मनुष्य भी अपने परिवार को
झुन्ड ही बनाता,
तभी
परिवार,
परिवार कहलाता।
परिवार कहलाता।।


.............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, April 23, 2012

{ १३८ } वफ़ा या दगा




ये गम कहाँ हमें आजाद करने वाले हैं
उदासियों को हम आबाद करने वाले हैं।

वफ़ा के नाम पर भी तुम देते रहे दगा
तेरे ये शौक, हम जमाद करने वाले हैं।

हमें पता है तुम्हारे नश्तर गहरे चुभते हैं
तुम्हारे अंदाज हमें बरबाद करने वाले हैं।

जब भी हो तेरे जुल्मों-सितम से रिहाई
सितम की न हम फ़रियाद करने वाले हैं।

कोई और नई सजा ईजाद कर ले जालिम
ये तस्दीक तुमको जल्लाद करने वाले हैं।

तुम हमारे दिल में हो और दिल में रहोगे
तुम्हारी सदा हमको आबाद करने वाले हैं।


-------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

जमाद = विकसित न होने देना
तस्दीक = साबित करना
सदा = आवाज


Sunday, April 22, 2012

{ १३७ } क्यों.....??




शजर हरा-भरा, पर
एक भी पत्ता नही,

जवाँ है हौसला, पर
खुद पर भरोसा नहीं,

सभी अपने ही हैं, पर
किसी से रिश्ता नहीं,

फ़रिश्ते भी रो रहे हैं
शैतान क्यों सोता नही।।


...................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, April 21, 2012

{ १३६ } बलमा, अब तू आ रे.....





आई बहार, हरसिंगार खिले हिये
उपवन का मैं मधुर मधुसार लिये
नव-यौवना सा सुन्दर श्रृंगार किये
मादक रस का प्याला सरसार पिये
भागी चली आई देखो बलमा दुआरे।
आ रे आ रे, मोरे बलमा, अब तू आ रे ।।

आँख में आँज कर लाज का काजल
मुखर नूपरों की पाँव में बंधी पायल
अन्तर्हासी आनन पर ओढ आँचल
सुरमयी कँठ और गीतमयी बादल
ओ बलमा इन पलों को क्यों व्यर्थ गुजारे।
आ रे आ रे, मोरे बलमा, अब तू आ रे ।।

करवटें बदलते रहे हम रात कितनी बार
थरथराती दिये की लौ सी, रही राह निहार
ताकती इधर-उधर सुनती जब कोई पुकार
देखूँ कभी राह तो कभी रही चाँद को निहार
घिर आई चाँदनी रात, जागते चाँद सितारे।
आ रे आ रे, मोरे बलमा, अब तू आ रे ।।

प्रियतम जाने कब तुम आओगे
कब तक मुझको यूँ तरसाओगे
कब नयनों से नयन मिलाओगे
कब मीठी-मीठी बात सुनाओगे
कहीं बीत न जायें ये मनमोहक बहारें।
आ रे आ रे, मोरे बलमा, अब तू आ रे ।।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, April 19, 2012

{ १३५ } लायें जगमगाता सूरज-सबेरा





अराजकताओं की आओ हम मिलकर
तोडें ये बडी और कठोर सी शिलायें
हर घर-गली और हर शहर-गाँव में
हटा कर छल-कपट-पाखंड का अँधेरा
आओ, लायें जगमगाता सूरज-सबेरा।।

हर तरफ़ आतंक-अन्याय का तम है
स्वार्थ ने रच दिया अजीब सा भ्रम है
बाहुबलियों के हा्थों बन्दी है रोशनी
बन गई चेरी, चील-गिद्धों की योगिनी
जगमगा रहा केवल शोषकों का बसेरा
आओ, लायें जगमगाता सूरज-सबेरा।।

भविष्य खेल रहा भूखे, नंगे, उघारे तन
सिंह-शावक बैठ गये चुप हो मेमने बन
सन्यस्त की कुटियों से रूठ गया उजाला
यग्य-हवन धूम्र नही, बह रहा धुआँ काला
इन काली आँधियों ने ढाँप लिया घनेरा
आओ, लायें जगमगाता सूरज-सबेरा।।

उन्नत राष्ट्र का स्वप्न साकार करें हम
धृतराष्ट्र के कुशासन का संहार करें हम
गूँगे-बहरों की आवाज-ललकार बने हम
भारत माता की तेग - तलवार बने हम
निष्प्राण करें नाग-नागिन को बन सपेरा
आओ, लायें जगमगाता सूरज-सबेरा।।


..................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, April 17, 2012

{ १३४ } निभाते रहे हम





लबों पर शिकवे-गिले सजाते रहे हम
तुम्हारी वफ़ाओं को सहलाते रहे हम।

यकीनों की कश्ती भँवर में है फ़ँस गई
इसलिये दरिया में डगमगाते रहे हम।

दिल का आशियाँ रहा उजडा हुआ सा
उम्मीदों की महफ़िल सजाते रहे हम।

आँखों में सुलगते रहे उदासी के दीपक
दिल की तडप से उन्हे जलाते रहे हम।

अब नही आबाद हैं दिल में कोई ख्वाब
अपनी बरबादियों को निभाते रहे हम।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, April 16, 2012

{ १३३ } मन के फ़ूल





कोई नही यहाँ पर गुनने वाला
सब बने बहरे कौन सुनने वाला।

किसीका नही यहाँ अता-पता है
सबकी अपनी ही व्यथा-कथा है।

किससे यहाँ मन की बात कहें
क्यों हम ही निराश-उदास रहें।

सब ही हैं अपने ही मे मशगूल
हम भी खिलायें मन के फ़ूल।।


....................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, April 15, 2012

{ १३२ } देश बेच डाला





भारत देश का गुणगान बेच डाला
"इन्होने" अपना ईमान बेच डाला।

जो हो गये शहीद इस देश के लिये
"इन्होने" उनका बलिदान बेच डाला।

कर्ज-भूख से आज मर रहा किसान
"इन्होने" खेत-खलिहान बेच डाला।

भारत देश था महापुरुषों की धरती
"इन्होने" उनका सम्मान बेच डाला।

सच्चाई की जुबाने हो गईं हैं बन्द
अरे सब कुछ तो शैतान बेच डाला।


................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, April 14, 2012

{ १३१ } खुदा जाने





हम मिलेगें या दूर-दूर ही रहेंगें, खुदा जाने
कैसी बदल जाये हवा कैसे बहेंगें, खुदा जाने।

कब किस तरह बदल जायें वक्त के ये तेवर
वक्त की इस मार को कैसे सहेंगें, खुदा जाने।

बह रहे अश्क ही अश्क, धुआँ उठता आँखों से
ये बरसते हुए बादल कैसे थमेंगें, खुदा जाने।

हो जाते हैं दिल टुकडे-टुकडे, हुस्न की मार से
क्या दौलते दिल हर राह यूँ लुटेंगे, खुदा जाने।

मुझसे दूर रह कर न तू खुश, न मुझे ही चैन
ये बिछडे हुए दो दिल कब मिलेंगें, खुदा जाने।


............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, April 10, 2012

{ १३० } देश बहुत बीमार हो गया





राजनीति के दावेदारों का
जेबी इंकलाब के नारों का
हर शख्स शिकार हो गया।
देश बहुत बीमार हो गया।।

पश्चिम से उठ रही है दुर्गन्ध
पूरब के हो गये जिससे संबंध
अब हालात बहुत खराब दिख रहे
हर मन में हिंसा के ख्वाब सज रहे
देश को मियादी बुखार हो गया।
.......देश बहुत बीमार हो गया।।

लूट-पाट, भूख-भय, झगडे और लडाई
असंस्कृति आ कर संस्कारों में समाई
कोई बहुत अमीर और कोई गरीब भूखा
कैसा हो गया अपना भारत रूखा-सूखा
ये कैसा भ्रष्ट आचार-विचार हो गया।
.............देश बहुत बीमार हो गया।।

परिवर्तन हुआ या हो रहा शोषण
हर गाँव-गली भुगत रही कुपोषण
जर्जर हाल आज हो गई मनुजता
नही बची अब आपस की सहजता
ये कैसा असहज व्यवहार हो गया।
.........देश बहुत बीमार हो गया।।


................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, April 5, 2012

{ १२९ } हमे क्या मालूम





ज़िन्दगी कैसी दिखेगी, हमें क्या मालूम
ज़िन्दगी क्या लिखेगी, हमें क्या मालूम।

शान बनी तनहाइयाँ, आँख ढके परछाइयाँ
ज़िन्दगी इसे कैसे सहेगी, हमें क्या मालूम।

उठती ऊँची दीवार, हर आदमी लगे बीमार
ज़िन्दगी क्या-क्या कहेगी, हमें क्या मालूम।

हर गुल में टकराव, हर दिल में हो बिखराव
ज़िन्दगी किस तरह चलेगी, हमें क्या मालूम।

हवाओं को क्या हुआ, दिशाओं को क्या हुआ
ज़िन्दगी किस तरह रमेगी, हमें क्या मालूम।


.................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, April 3, 2012

{ १२८ } संस्कृति पर कुठाराघात





है बहुत दिनों की साजिश यह, नही बनी यह स्थिति अकस्मात
भारत की संस्कृति पर, नित्य ही हो रहा भीषणतम कुठाराघात।

हर युग में जयचन्दों के होने का जारी है आज तक सिलसिला
बस तोडो लोगों की देश-भक्ति और कुचल डालो उनके जज्बात।

संत समाज करता रहता हर क्षण प्राणी की कुशलता के प्रयास
दुराग्रही, देशद्रोही, सत्ता-लोलुप दे रहे संतों को जेलों की सौगात।

अभी कुछ नहीं बिगडा है अभी अपना लो अपने भारत की संस्कृति
चूक गये अगर वक्त तो फ़िर मलते रह जाओगे अपने खाली हाथ।

मानव से मिली संस्कृति को ठोकरों से क्या संस्कृति चुप रहेगी
न मिलेगा ठौर कहीं जब संस्कृति करेगी अपने प्रकोप की बरसात।


.................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, April 2, 2012

{ १२७ } दस्तक





दिल में बस गये इस तरह याद आने के लिये
कुछ नये-नये चेहरे पुरानों को भुलाने के लिये।

उनकी यह मस्त सी अदा यादों से जाती नही
रूठते रहते हैं वो फ़िर से मुस्कुराने के लिये।

आँखों मे दर्द थम कर अश्कों के संग बह गया
कोशिशें नाकाम ही रहीं उन्हे छुपाने के लिये।

इस तरह न इतराओ इन बहारों के लिये कभी
कब आये झोंका आँधियों का सब उडाने के लिये।

उनके दिल की दीवारों पर दस्तक दे रही सदायें
मेरे टूटे दिल की तस्वीर उन्हे दिखाने के लिये।


............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १२६ ] मुँसिफ़ हो अगर तुम





यह जरूरी नही उसको भी मेरा कुछ खयाल हो
जो हो गया मेरा हाल, वही उसका भी हाल हो।

किसी का फ़लक कोसने से तो कोई फ़ायदा नही
नुक्स हो अपना और अपनी खराब उछाल हो।

न कोई बात-तजकिरा, कैसे दिल की खबर मिले
आपस की दरयाफ़्तगी, कुछ जवाब-सवाल हो।

ढली रौनके-शाम, मयकदे मे ही गम निकलते हैं
ऐसे बीतें जब रोजो-शब तो कैसे जीना मुहाल हो।

आस कब दिल को न थी उसके वापस आने की
कोई दिन ऐसा नही जब दिल उनसे बेखयाल हो।

मुँसिफ़ हो अगर तुम तो कब मेरा इंसाफ़ करोगे
मुजरिम अगर हम हैं तो क्यों सजा से बहाल हो।

मेरी बरबादियों में कुछ तो उसका भी हाथ रहा है
आज हालात कुछ है, कल कुछ और अहवाल हों।

दुआ है कभी न मैली हो मेंहदी उसके हाथों की
मेरे दिलबर का हुस्न हमेशा ही बेमिसाल हो।


................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

फ़लक = आसमान
तजकिरा = वार्तालाप
दरयाफ़्तगी = जिग्यासा
अहवाल = हालात


Sunday, April 1, 2012

{ १२५ } क्या जीते-जी हम मर जायें





क्या जीते- जी मर जायें...।
पिया बोलो हम क्या कर जायें।।

सावन की घटायें छा गईं
सरशार हवायें आ गईं
सखियाँ मुरादे पा गईं
हम किससे नैन मिलायें।
क्या जीते- जी मर जायें...।
पिया बोलो हम क्या कर जायें।।१।।

सखियों ने डाले हैं झूले
पए जिसको अगिन छू ले
वो सरसों कैसे अब फ़ूले
हम किसको हाल सुनायें।
क्या जीते- जी मर जायें...।
पिया बोलो हम क्या कर जायें।।२।।

सखियों के ताने भी झेलें
कैसे आँख मिचौनी खेलें
सूख गईं मन की बेलें
क्या झूठी ज्योति जगायें।
क्या जीते- जी मर जायें...।
पिया बोलो हम क्या कर जायें।।३।।


.............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ १२४ } मँजिल है तेरी दूर





मँजिल है तेरी दूर, मुसाफ़िर,
मँजिल है तेरी दूर।
जाना है बहुत दूर, मुसाफ़िर।
मँजिल है तेरी दूर।।१।।

बहुत है लम्बा रास्ता
कदम हैं भारी-भारी
तन है चकनाचूर, मुसाफ़िर।
मँजिल है तेरी दूर।।२।।

पाप से भरी गठरी,
सिर पर लादे भारी,
फ़िर भी तू है मगरूर, मुसाफ़िर।
मँजिल है तेरी दूर।।३।।


मँजिल है तेरी दूर, मुसाफ़िर,
मँजिल है तेरी दूर।

................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल