Wednesday, December 30, 2015

{ ३२० } रे ! मूढ़ मानव





रे ! मूढ़ मानव
क्यूँ ढूँढ़ रहा
इन छली मानवों के
बनावटी मुखौटों के बीच
धुँधले हो चुके
आईने में
अपना चेहरा.........

जब तेरे ही
आँसुओं से
धुल कर
होगा साफ़
आइना दिलों का
तभी दिखेगा
मुस्कुराता हुआ
तेरा अपना चेहरा........

तब तक
तू चेष्टा कर कि
आँखों में
बर्फ़ की मानिन्द
जम चुके आँसू
पिघल कर
बहने को तत्पर हों
और मुस्कुराता हुआ
दिख सके
तेरा अपना चेहरा..........।।

................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, December 16, 2015

{ ३१९ } ज़िन्दगी को तरसते रहे





ज़िन्दगी भर हम ज़िन्दगी को तरसते रहे
मिला न कहीं सुख-चैन शोले बरसते रहे।

हम ज़िन्दगी की यादों से बाहर न आ सके
तनहाइयों में शबो-रोज़ यूँ ही भटकते रहे।

इन्सानियत की बातों पर हँसी थमती नहीं
जीस्त भर इंसान में इंसानियत परखते रहे।

जीने की कोशिश में आखिर हासिल हुआ ये
कि जीस्त भर हम मर-मर के ही मरते रहे।

मंजिलें हमारे समने थीं मुन्तज़िर, मगर
हम खुद कामयाबी की राह से भटकते रहे।


................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, December 7, 2015

{ ३१८ } मेरी ये ज़िन्दगी





ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी से ही जँग जारी है
अश्कों के सैलाब में तैरती कश्ती हमारी है।

वक्त बन न सका दोस्त कभी भी हमारा
वक्त के हर लम्हे को दुश्मनी ही प्यारी है।

दुश्मनों से दोस्ती कभी दोस्तों से दुश्मनी
ज़िन्दगी भी दिखाती अजब ही किरदारी है।

देखा है ज़िन्दगी को बहुत ही करीब से हमने
ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी की ही जिम्मेदारी है।

मेरे मुकद्दर का ही आईना है मेरी ये ज़िन्दगी
जो कभी मीठी-मीठी तो कभी खारी-खारी है।

........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, December 6, 2015

{ ३१७ } मेरे हमदम




कैसे भुला सकेंगें
गुजरा है जो वक्त
संग अपने.........

तब खुली आँखों से
देखे थे
हमने तुमने
जो अनगिनत सपने................

कोई फ़र्क नही है
मेरे हमदम
तुझमे और मुझमें...........

हुए हैं बेजार
जब से
तुम मुझको भूले
और मैं भूला तेरे नगमें..........।।

.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, December 4, 2015

{ ३१६ } शिव हूँ मैं




शिव हूँ मैं
शिव हो तुम
शिव है सम्पूर्ण सृष्टि
शिव है अनहद नाद
शिव है अंतर्दृष्टि...............

शिव ही शब्द
शिव ही भाव
शिव ही अभिव्यक्ति
शिव ही स्वीकृति..................

शिव ही भूत
शिव ही भविष्य
शिव ही वर्तमान
शिव ही काल.................

शिव सिन्धु से भी गहरा
शिव निरभ्र विस्तृत व्योम
शिव ही श्री
शिव ही हरि
शिव ही ओम.................

शिव ही शव
शिव ही जीव
शिव ही शक्ति
शिव ही भक्ति...............

शिव ही संरक्षक
शिव ही संहारक
शिव ही शान्त
शिव ही प्रचन्ड.................

शिव ही आदि
शिव ही अनन्त
शिव ही बिन्दु
शिव ही दिग्दिगन्त..............

शिव ही अस्तित्व
शिव ही शाश्वत
शिव ही विष
शिव ही अमृत......................

शिव ही मैं
शिव ही तुम...........।।


............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, December 3, 2015

{ ३१५ } उन्ही से दिल लगा बैठे





फ़ाकाकशी में भी हम उनसे आशिकी कर बैठे
परवाह न की अंजाम की हाय ये क्या कर बैठे।

मस्त निगाहों के जाल में हम खुद को भूल गये
अपना मुफ़लिस दिल हाय बिन सोंचे ही दे बैठे।

शौक बहुत महँगे हैं उनके मालूम न था हमको
आशिकी में हम कंगाली का आटा गीला कर बैठे।

जानलेवा ही हुआ करता है ये आशिकी का नशा
ये जान कर भी हम उनसे ही आशिकी कर बैठे।

उनसे ही शिकवे हैं उनकी ही चाहत भी है हमको
उनसे ही दिल टूटा फ़िर उनसे मोहब्बत कर बैठे।

..................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, November 29, 2015

{ ३१४ } पहचानों वक्त को





देखो.........!! समझो........!!!
जानो .......!! और मानो.......!!!

वक्त से बड़ा
कर्मों का हिसाबी
कोई नहीं है........... !!!

अगले क्षण से वंचित कर
वह सजा ही देता है
हर उस व्यक्ति को
जो खुद के
इस क्षण को
यूँ ही बर्बाद कर देते हैं........... !!!


............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, November 24, 2015

{ ३१३ } मिलता नहीं कहीं ज़िन्दगी का साहिल





लाख मशक्कत कर ली पर कुछ न हासिल है
न अपना समन्दर है न कोई अपना साहिल है।

वफ़ा के नाम पे खेलता है आशिक के दिल से
वो किसी का महबूब नही इश्क का कातिल है।

दरिया-ए-जीस्त में बहते कई किनारे देख चुके
पर मिलता नहीं कहीं ज़िन्दगी का साहिल है।

आसमाँ में छाया है हर तरफ़ गम का अन्धेरा
शायद फ़िर जला किसी आशिक का दिल है।

भूलना ही होगा दर्द दिल के ज़ख्मी होने का
मेरा महबूब ही मेरे मासूम दिल का कातिल है।

...................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, July 26, 2015

{ ३१२ } मुखौटे





दुनिया एक रँगमँच है
और हम सभी शरीरधारी
जीवन रूपी नाटक के पात्र,
नाटक है तो किरदार को
मुखौटा तो धारण करना ही होगा।

दुनिया के रँगमँच में
हम कठपुतली सम अभिनेता
तरह-तरह के मुखौटे लगा
भाँति-भाँति के अभिनय दिखा
साबित करते हैं खुद को सर्वश्रेष्ठ
पर जब कभी भी
खुद से बेहतर अभिनेता
हमसे बेहतर अभिनय दिखा जाता है
तब हम कुँठाग्रस्त हो
दोष देते हैं अपने मुखौटे को
यह भूल कर कि
दुनियावी रँगमँच के
हम सिर्फ़ अभिनेता है
न कि रँगमँच के सँचालक।
न कि रँगमँच के सँचालक।।

.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, April 26, 2015

{ ३११ } धोखा पहले पाप था अब दस्तूर हो गया





धोखा पहले पाप था अब दस्तूर हो गया
आँख होते हुए अँधापन भरपूर हो गया।

बुरा भी है वोह पर छोड़ता कोई नहीं उसे
आमों-खास का आज वो ही नूर हो गया।

सिर झुका के किसी को खुदा बना लिया
दिखाकर चालाकियाँ वो मशहूर हो गया।

दिल की प्यास लिये चलते मुद्दत गुजरी
न बुझेगी प्यास दिल चकनाचूर हो गया।

हवाओं में विष घुला सावन भी रूठ गया
पीड़ा हुई संगनी जाने क्या कसूर हो गया।

........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, April 24, 2015

{ ३१० } मैं गुनहगार मुँसिफ़ है वो





दर्द, आह, आँसू की अब शिकायत नहीं
दर्द में मरहम लगाने की रवायत नही।

ये शीशा एक न एक दिन टूटना ही था
तमाम उम्र करेगा कोई हिफ़ाजत नहीं।

धोखा, फ़रेब, मक्कारियों से भरे कदम
सभी जानते हैं ये हमारी विरासत नहीं।

शायद मैं ही गुनहगार पर मुँसिफ़ है वो
अपने लिये की इंसाफ़ की हिमायत नहीं।

न कोई गिला रहा न कोई शिकवा उनसे
जब उनको ही हमसे कोई मोहब्बत नहीं।

.............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


रवायत = प्रथा
मुँसिफ़ = न्याया धीश


Thursday, April 23, 2015

{ ३०९ } हर तीर के हम निशाने बने रहे





हर तीर के हम निशाने बने रहे
नाराजगियों के बहाने बने रहे।

रोज ही चुभता टुकड़ा शीशे का
दर्द सीने के वही पुराने बने रहे।

सिर-आँखों में जब तक रखा था
मोहब्बतों के ही जमाने बने रहे।

मुश्किल से ही अब मालूम हुआ
ठौर मेरा नहीं बे-ठिकाने बने रहे।

भेद-राग गाते हैं वो अपनेपन से
सुनकर भी हम अनजाने बने रहे।

.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, April 19, 2015

{ ३०८ } कलम में मुस्कानों की स्याही हो





दुनिया का कोलाहल हो या जंगल की तनहाई हो
पा ही लेंगे साहिल अपना चाहे जितनी गहराई हो।

संग तेरी दुआओं के बरसेगी रहमत रब की मुझपे
मिल ही जायेगी शोहरत चाहे जितनी ऊँचाई हो।

गर हो नजरिया खूबसूरत तो मिलती है इज्जत
बात करो जब भी कोई तुम उसमें बस दानाई हो।

मौसम के भी तेवर देखो पतझर हो या बसन्त बहार
बहती रहे मस्त पवन चाहे पछुआ हो या पुरवाई हो।

गीत लिखो, गज़ल लिखो या कि लिखो तुम रूबाई
लिखो जो भी कलम में बस मुस्कानों की स्याही हो।

........................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


दानाई = बुद्धिमानी

Thursday, April 16, 2015

{ ३०७ } बन ही जाऊँ कलंदर तो क्या





जब खुद प्यासा है समन्दर तो क्या
अब धरती हुई जाती बंजर तो क्या।

खामोशी को ओढ़ो उदासी बिछाओ
गर अजनबी हो रहा मंजर तो क्या।

कुटिल मुस्कान भर कर अधरों पर
वो ही सीने में उतारे खंजर तो क्या।

जिसके जिक्र पर सजल होती आँखे
आज भी हूँ उसका मुंतजर तो क्या।

छोड़ के सब दुनियादारी और ऐयारी
अब बन ही जाऊँ मैं कलंदर तो क्या।

.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

मुंतज़र = जिसकी प्रतीक्षा की जा रही
ऐयारी = चालाकी
कलंदर = फ़कीर

Tuesday, April 14, 2015

{ ३०६ } बतलाओ हँस लूँ या रो लूँ





उम्र भर खामोश रहा अब अंजुमन से क्या बोलूँ
कोई दवा न देगा ऐसे में दिल के दर्द क्या खोलूँ।

हर हालात मे मुस्कुराने की आदत थी हमे कभी
अब दिल रहता उदास बतलाओ हँस लूँ या रो लूँ।

बेरुखी के खण्डहर में हरतरफ़ अँधेरा ही अँधेरा है
आस का चिराग जला कर प्यार को कहाँ टटोलूँ।

मोल हँसने का मुझे रो-रो कर अदा करना पड़ा
बताओ अपने कड़वे हरफ़ों मे कैसे मिठास घोलूँ।

मँझधार में हमको यूँ छोड़ कर जाने का शुक्रिया
मौका है कि अब मैं अपनी ताकत को भी तोलूँ।

................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, April 11, 2015

{ ३०५ } हम अपने साये से भी डरने लगे





हम अब अपने साये से भी डरने लगे
जब उनके भी चढ़े मुखौटे उतरने लगे।

पलकों को बन्द कर बैठता हूँ जब भी
साजिशों के घने अन्धेरे उभरने लगे।

फ़ूल गुलशन में हमारे हजारों थे मगर
मेरे चमन में खार ही खार सँवरने लगे।

जब कभी भी परवाज़ को उठाई है नज़र
फ़ैले हुए पँख वो हमारे ही कतरने लगे।

थम गई खिलखिलाहट टूट गई खुशियाँ
बे-दिली - बे-कसी मे दिन गुजरने लगे।

....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

बे-दिली = उदासी
बे-कसी = दुःख

Sunday, March 29, 2015

{ ३०४ } रात ढ़ली जाती है






चढ़ी हुई रात यूँ ही ढ़ली चली जाती है
साथ ज़िगर को भी चीरे चली जाती है।

कल तलक थी जो साथ में ही मेरे, आज
हर सूँ देखा कहीं वो नज़र नहीं आती है।

मेरा टूटा हुआ दिल बिखरा पड़ा हरतरफ़
न जाने कैसे - कैसे वोह सितम ढ़ाती है।

कुछ पल को तो करीब आ जा ओ जालिम
दिल की प्यास हर सूँ चीखती चिल्लाती है।

अब मुझसे कतई रहा जाता नहीं तेरे बिना
ये ज़िन्दगी दर्द की ही जागीर हुई जाती है।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, March 24, 2015

{ ३०३ } सन्नाटा





चारो तरफ़ घुप्प अँधेरा
वातावरण में गूँज रहे हैं
चीटियों से फ़ुसफ़ुसाते शब्द
अचानक एक किरण सी चमकती
पर ऐसा क्यों लगता है कि
अभी सब किसी गहरी खोह में
अदृश्य हो जायेगा,
सिर्फ़ बचा रह जायेगा
पीड़ादायी, रेंगता हुआ सन्नाटा।।

............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, March 7, 2015

{ ३०२ } हमें तुमसे बहुत प्यार है





ओ नाजनीन हमें तुमसे बहुत प्यार है
पर जमाना बना हुआ बीच मे दीवार है।

ये हमारे प्यार की ही मजबूत नींव है
होती रहती जो कभी-कभी तकरार है।

तड़पना, जगना और राह का तकना
यही मोहब्बत का असली किरदार है।

हमे तन्हा प्यार के सफ़र में न छोड़ना
आसां नही इश्क की राह बहुत दुश्वार है।

चले जायेंगे एक दिन दुनिया छोड़कर
पर कहते रहेंगे कि हमे तुमसे प्यार है।

........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, February 23, 2015

{ ३०१ } चन्द्रमा की आग





अब सहन नहीं होती सूरज की तपन
और यह चन्द्रमा भी तो आग उगलने लगा है
शायद..........
दोनो में कोई गुप्त समझौता हो गया है।

कहाँ जायें इस तपन से बचने के लिये
कलकल करती हुई किसी नदी में,
झरझर झरती हुई किसी झील में
या किसी गगनचुम्बी पर्वत पर।

पर क्या हम वहाँ इसकी तपन से,
इसकी झुलसा देने वाली आग से
स्वयं को बचा पायेंगें?

हमारे सारे अरमान तो
इसकी आग में जल गये, राख हो गये,
अब इस राख का क्या मोल रह गया,?
किस काम आयेगी यह राख.......?

पर मैं सुरक्षित रखूँगा इस गर्म राख को
इस गर्म राख के अन्दर सुलगने वाली आग को।

शायद वो ही
इस सामाजिक और प्राकृतिक विद्रूपता से बचा सके
शायद वो ही
इस सामाजिक और प्राकृतिक विद्रूपता को समाप्त कर सके।

शायद यह सुलगती हुई आग ही
सूरज की प्राकृतिक तपन
और चन्द्रमा की शीतलता को
वापस ला पायेगी।

हाँ ! अवश्य ला पायेगी।
हाँ !! अवश्य ला पायेगी।।

................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, January 31, 2015

{ ३०० } प्रलय की भूमिका






निर्माण जिसे तू कहता फ़िरता
मूरख ! वह भूमिका तो प्रलय की है.............
अपनी सुविधा में लगे हुए चिल्लाते हो
कहते ये माँग आज के समय की है.............
वंचक हो जायें शासक तो समझ लो
उन्नति हुई चहुँओर सिर्फ़ अनय की है..........
कथनी में त्याग-स्नेह है लेकिन
करनी में छाप लगी संचय की है.................
हो जाओ खबरदार घिरने को उठी
चहुँओर घनघोर घटा क्षय की है..............
निर्माण जिसे तू कहता फ़िरता
मूरख ! वह भूमिका तो प्रलय की है।।


........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, January 21, 2015

{ २९९ } दुख दर्द ही बचे मेरे मुकद्दर में





ये दुख दर्द ही बचे मेरे मुकद्दर में हैं
हो गया गम का बसेरा मेरे घर में है।

खुशियाँ भी पास आती तकल्लुफ़ से
मेरा मस्कन जो गहरे समन्दर में है।

किया भरोसा मैंने उस शख्स पर भी
जो रहता मेरे दुश्मन के लश्कर में है।

मैं वो पत्थर नहीं जो देवता बन सकूँ
मेरा ठिकाना हर पैर की ठोकर में है।

जिये जा रहा जीने की तमन्ना ले कर
शायद कुछ जान बाकी इस पिंजर में है।

...................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



मस्कन = रहने का स्थान

Saturday, January 10, 2015

{ २९८ } पर, प्रियतम तुम कभी न आये





पर, प्रियतम तुम कभी न आये।

स्मृति पट पर अब तक मैंनें
जाने कितने ही चित्र बनाये,
कितनी बार नयन के घन से
पीड़ा के अँकुर सरसाये।
पर, प्रियतम तुम कभी न आये।।१।।

मेरे उर की विकल वेदना
प्रियतम तुम समझ न पाये,
मेरे मौन रुदन की भाषा
सुन कर भी जान न पाये।
पर, प्रियतम तुम कभी न आये।।२।।

कितनी बार पपीहे के स्वर में
मैंनें विरह के गीत दोहराये,
कोई दिन गया न ऐसा जब
हमने आशा-दीप नहीं जलाये।
पर, प्रियतम तुम कभी न आये।।३।।

.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, January 5, 2015

{ २९७ } बूढ़ा मन काँपने सा लगता है





कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है.........।

खुशियों के चमन के फ़ूलों की पाँखे
काँटों से सजी सेज हो जाती है.........
पोर-पोर तक थक कर चूर हुए दिन की
उखड़ती हुई साँसे तेज हो जाती हैं........
अम्बर को भेदते शिखरों का मस्त राही
रपटीली ढ़ालों पर हाँफ़ने सा लगता है.......।

कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है...........।।

................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, January 4, 2015

{ २९६ } मोहब्बत की गहराइयाँ





मोहब्बत में छिपी गहराइयाँ देखो
झूठ मे दफ़न हुई सच्चाइयाँ देखो।

दिल की दहकती आग दबती नहीं
नकाब में छिपी रुसवाइयाँ देखो।

खामोश रात, बोझिल चाँदनी में
मेरे आँगन की तनहाइयाँ देखों।

मेरे गमों का तुमको गुमान नहीं
आहों से बजती शहनाइयाँ देखो।

 है मेरी मोहब्बत का ये निशान
अपने पीछे मेरी परछाइयाँ देखो।

............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल