अब सहन नहीं होती सूरज की तपन
और यह चन्द्रमा भी तो आग उगलने लगा है
शायद..........
दोनो में कोई गुप्त समझौता हो गया है।
कहाँ जायें इस तपन से बचने के लिये
कलकल करती हुई किसी नदी में,
झरझर झरती हुई किसी झील में
या किसी गगनचुम्बी पर्वत पर।
पर क्या हम वहाँ इसकी तपन से,
इसकी झुलसा देने वाली आग से
स्वयं को बचा पायेंगें?
हमारे सारे अरमान तो
इसकी आग में जल गये, राख हो गये,
अब इस राख का क्या मोल रह गया,?
किस काम आयेगी यह राख.......?
पर मैं सुरक्षित रखूँगा इस गर्म राख को
इस गर्म राख के अन्दर सुलगने वाली आग को।
शायद वो ही
इस सामाजिक और प्राकृतिक विद्रूपता से बचा सके
शायद वो ही
इस सामाजिक और प्राकृतिक विद्रूपता को समाप्त कर सके।
शायद यह सुलगती हुई आग ही
सूरज की प्राकृतिक तपन
और चन्द्रमा की शीतलता को
वापस ला पायेगी।
हाँ ! अवश्य ला पायेगी।
हाँ !! अवश्य ला पायेगी।।
................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल