Monday, December 31, 2012

{ २२४ } मर-मरकर जीते रहते





देर हो या कि हो अँधेर, हम बस जीते रहते
मन ही मन रोते, विष पी-पीकर जीते रहते।

मर्यादा की बेडी और हया की हथकडियाँ हैं
बेबस इसाँ बन कर हम जीवन जीते रहते।

अँधे गहरे कूप तले छिप बैठा है अपना सुख
दुख की खाई में ही जीवन नैय्या खेते रहते।

मायावी दुनिया का मँच सजा है रँग-बिरँगा
सुख के लालच में कठपुतली बन जीते रहते।

सच्चाई की हार यहाँ पे, प्यार बना छलावा
दिल में दरार सजाये, मर-मरकर जीते रहते।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, December 27, 2012

{ २२३ } कौन है वो





कौन है वो,
जिसका हमे
होता है आभास
पर वो सामने नहीं।

कौन है वो,
जो छाया बन
साथ-साथ चलता
पर वो दिखता नही।

कौन है वो,
जो देता है हमे
सुखद स्पर्ष
पर वो छूता नहीं।

कौन है वो,
जो देता है हमे
स्वर्णिम आनद
पर वो हँसता नहीं।

कौन है वो,
जो हर दर्द मे
है साथ-साथ
पर कराहता नहीं।

कौन है वो,
जो है
मेरे साथ हर साँस।

कौन है वो,
जिसका करते
हम हर पल,
हर क्षण आभास।

कौन है वो,
जिसको ढूँढे हम
मंदिर-मस्जिद
और गिरजाघर मे।

वो, है यहीं कहीं
पर हम
पा न सके
उसको कहीं।

कौन है वो,
जिसको अब हम
खुद में ढूँढते है।
खुद में ढूँढते है।।

....................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, December 26, 2012

{ २२२ } दिल की बात






दीवानों से दिल की बात न पूछो
किस ने दी दिल को मात न पूछो।

दुनिया कहाँ जानती दिल की बातें
दीवाने से दिल के हालात न पूछो।

ख्वाब और मँजिल सब हुए गुम
कैसे हुए ये गर्दिशे-हालात न पूछो।

हुस्न पर मैं इश्क लुटाता रहता हूँ
हम जैसे दीवानों की जात न पूछो।

जगमगा जायेंगे खुशियों के चिराग
मिली ये इश्क की सौगात न पूछो।



--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २२१ } तसव्वुर से पुर तलावती रातें





खाक नींद आयेगी आँखों को, अगर दीदाए-बेदार होती है
आस्माँ में कभी चाँद-तारे या जुगुनुओं की कतार होती है।

लाज़िम है किसी पर खुशियाँ लुटाना, किसी पे जान देना
यूँ अकेले-अकेले तनहाई में कहाँ रँगीनिये बहार होती है।

हम डूबे हैं इश्क में, इश्क की गली से है वापसी मुश्किल
इश्क में सब्र करना मुश्किल, इश्क तो नौ-बहार होती है।

दिलबर के हुस्न के दिलकश नजारे हैं मेरे दिल पर छाये
तसव्वुर से पुर ये तलावती रातें बडी दिल-अज़ार होती हैं।

दिन में अपने ख्वाबों को लिये फ़िरते हम गलियों-गलियों
ये ढलती हुई शामती शामें मैखाने में ही पुर-खुमार होती है।

कभी भी आसाँ नही होता अपने दिलबर से दोस्ती रखना
आशनाई में अपनी सारी ज़िन्दगी ही निसारे-यार होती है।

जो आबाद कर सके किसी आशिक के इश्क की दुनिया
ऐसी गज़ल-ओ-सुखन की ही आशिक को दरकार होती है।


.................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


दीदाये-बेदार = खुली हुई आँखे, जागना
रंगीनिये-बहार = बसन्त की शोभा
नौ-बहार = बसन्त ऋतु
तसव्वुर = कल्पना
पुर = भरा
तलावती = लम्बी
दिल-अजार = कष्टप्रद
शामती - बदकिस्मत
पुर-खुमार = नशे में चूर
निसारे-यार = प्रेमिका पर निछावर


Monday, December 24, 2012

{ २२० } खत्म होगा सिलसिला अँधेरों का





लकीरों पे नहीं अपने हाथों पे करो भरोसा, मुकद्दर सँवर जायेगा
ये वक्त एक चलता पहिया ही है, गुजरते-गुजरते गुजर जायेगा।

जमाने के दिये गम है जुगनू की रोशनी, जलती-बुझती रहती है
रब के दीपक रहते हैं रोशन, तारीकिये-शब के बाद सहर आयेगा।

ज़िन्दगी में हादसे चाहे तमाम बार गुजरे पर हिम्मत से काम लो
गमों की भीड में अपने बुलन्द हौसलों से ही वक्त सँवर पायेगा।

तन्हाई, खामोशी, दर्द और गमों को अब कोई दूसरा ही नाम दे दो
मस्ती, शादमानी को बनाओ सुरूर मलंगी में वक्त गुजर जायेगा।

खत्म होगा सिलसिला अँधेरों का, जलेंगे फ़िर से टिमटिमाते दिये
खुश्बू फ़ैलाती हुई हवाओं में ये उदासी का मौसम बिखर जायेगा।

रँग बदलती इस दुनिया में कोशिशों से ही सब कुछ बदला करता
बस छोडो थकन जोशो-जुनूँ से बुरे से बुरा वक्त भी सुधर जायेगा।


................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


तारीकिये-शब = रात का अँधेरा
सहर = सुबह, सबेरा
शादमानी = खुशी
सुरूर = नशा
मलंगी = अलमस्ती

Saturday, December 22, 2012

{ २१९ } दिन ढलते दिल डूबे





किस अक्स को आइना तरसता है हमारा
दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा।

कब समाँ दिखेगा ज़ख्मों के भर जाने का
बुरा वक्त जाने क्यों न गुजरता है हमारा।

अधूरी ख्वाहिशों का सिलसिला रह गया है
मँजिल से मुसल्सल फ़ासला रहा है हमारा।

शायद मैं ही सबब बना अपनी शिकस्त का
एहसासे-मसर्रत दर पे नहीं रुकता है हमारा।

हमसे उन सुहानी शामों का चर्चा न कीजिये
उन यादों से ही दिल डूबने लगता है हमारा।


-------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

एहसासे-मसर्रत = सुख

Friday, December 21, 2012

{ २१८ } दिल से दिल लगा के देखो





चुपके-चुपके सबसे नजरें चुरा के देखो
एक बार हमसे भी नजरें मिला के देखो।

मैं ख्वाब हूँ, एहसास और हकीकत भी
खयालों में देखो कभी हाथ लगा के देखो।

दिल मेरा सच्चा है, खरा है, ओ ! दिलबर
जिस कदर चाहो इसे ठोंक-बजा के देखो।

कई सुहाने मँजर आयेंगें नजरों के सामने
अपनी आँखों में मेरा अक्स बिठा के देखो।

रुख पे लाली छायेगी, नजरें भी शरमायेंगी
जरा अपना दिल मेरे दिल से लगा के देखो।

तुम इसे गीत, नज्म या कि कहो गज़ल
लिखे वरक पे दो हरफ़, गुनगुना के देखो।


------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल

मँजर = नजारा
वरक = पन्ना
हरफ़ = अक्षर



Wednesday, December 19, 2012

{ २१७ } बिस्मिल





बिस्मिल छवि अंकित
जन-जन हृदयागार में
अमर कीर्ति तेरी अक्षुण
हिम-शिखर सी संसार में।

मातृभूमि के लिये हो गया
जीवन न्योछावर जिनका
स्वातंत्र आन्दोलन का
इतिहास साक्षी है उनका।

जिनकी स्मृतियों का मनता
सबके हृदय में नित पर्व है
भारत माता को अपने इस
वीर शहीद सपूत पर गर्व है।।

-------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल