Saturday, September 29, 2012

{ २०५ } एक हसीन ख्वाब






रंगीन रातों में
एक हसीन ख्वाब।।

जैसे हो प्रणय गीत
भीनी सी मुस्कुराहट
जैसे जलती मशाल
निगारीं है रिहाइश,
हुस्न है निसाब,
ऐसा है तेरा शबाब।।

आँखों में काजल
पेशानी में पसीना
बवन्डरों का मौसम
बहारों का महीना,
चेहरा चश्म-ए-आफ़्ताब,
ऐसाहै तेरा शबाब।।

चहचहाते पँछी
गुलजार गुलिस्ताँ
महकती घटायें
हसीन बागबाँ,
छाई रंगीनिये-शराब,
ऐसा है तेरा शबाब।।

रंगीन रातों में
एक हसीन ख्वाब।।


------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


निगारीं = श्रंगारित
निसाब = सरमाया
चश्म-ए-आफ़्ताब = सूरज
रंगीनिये-शराब = शराब की मस्ती



Friday, September 28, 2012

{ २०४ } रहते हैं दिल में याद आने के लिये






ऐसे बस जाते हैं दिल में याद आने के लिये
नये-नये चेहरे, पुरानों को भुलाने के लिये।

पर उसकी वो अदा यादों से जाती ही नही
वो रूठ जाते है फ़िर से मुस्कुराने के लिये।

आँखों का दर्द थम कर फ़िर से छलक पडा
नाकाम कोशिशें तमाम की छुपाने के लिये।

मुस्कुराकर न इतराया करो बहारों पर कभी
कब चले हवा का झोंका सब उडाने के लिये।

फ़िर भी वो दिल पर दस्तक दे रहे बार-बार
बची टूटी सी इमारत उनको दिखाने के लिये।


----------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, September 25, 2012

{ २०३ } ज़िन्दगी हुई बेवफ़ा





ज़िन्दगी हुई बेवफ़ा फ़िर भी मुझे प्यारी लगे
खुशियाँ डूबी गम में फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।

ज़िन्दगी में हर चीज अनोखी सी ही लगती है
मौत सी है ज़िन्दगी फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।

भूली यादें फ़िर ताजा हो जख्मों को कुरेदती हैं
दर्द से हो गई यारी फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।

ज़िन्दगी को तरसाया करते हैं ये गर्दिशे-दौराँ
इम्तिहान है ज़िन्दगी फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।

दिल जख्मी किया कमींगाह से आते तीरों ने
यही राहें ज़िन्दगी की फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।


---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


कमींगाह = शिकार के लिये छिपकर बैठने की जगह

Sunday, September 23, 2012

{ २०२ } खोया बचपन





ढूँढ रहा हूँ मैं
अपने बचपन को
आशाओं के आवरण में,

जाने कहाँ छुप गया है
हमारा बचपन,
जाने क्यों वो मेरे सँग
आँख मिचौली खेल रहा है,

जब भी पीछे मुडकर देखता हूँ
अजीब सा आभास होता है
जैसे किसी ने
हर लिया है मेरा बचपन
और दे गया है कुछ
कटु अनुभव,
वो अनुभव
जो मेरा बचपन
मुझे नहीं लौटा सकता।।


---------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, September 22, 2012

{ २०१ } गमों को हँस-हँस कर भुलाओ






दुनिया में सभी को गले से तुम लगाओ
किसी न किसी को हमदर्द तुम बनाओ।

क्यों बैठ गये इन चरागों को बुझा कर
अपनी आँखों से खुद को न तुम छुपाओ।

कभी बाग-चमन-बियाबाँ में भी टहलो
गमों को भी हँस-हँस कर तुम भुलाओ।

महफ़िलों में भी रहते हो तनहा-तनहा
दिल की तन्हाई को अब तुम मिटाओ।

जाँच-परख कर रिश्ते नही बना करते
दिल से ही दिलों को अब तुम मिलाओ।



------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, September 18, 2012

{ २०० } इन्तिहा ये प्यार की







अच्छी नही लगती ये फ़िज़ा मुझे तेरे बगैर
दिन-रात सताये ये ठँडी हवा मुझे तेरे बगैर।

जल रहा सारा बदन इन्तिहा है ये प्यार की
कौन बुझाएगा ये जलन बता मुझे तेरे बगैर।

बैठॊ कुछ और देर पास, तुम ही हो राजदार
अब माँगू किससे प्यार बता मुझे तेरे बगैर।

तुम्ही पर एतमाद है, तुम्ही से उम्रे-जाविदाँ
खुशी के चार पल न होंगे अता मुझे तेरे बगैर।


------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ १९९ } खुद को भूल जाऊँ मै






खुद तजुर्बा कर लूँ और दुनिया को बताऊँ मैं
इश्क को याद रखूँ और खुद को भूल जाऊँ मैं।

कोई तो खास बात है इस धोखेबाज इश्क में
जानते-समझते हुए भी इतने धोखे खाऊँ मैं।

जाने कहाँ गया वो वक्त जब था दुनियावी
अब खुद को अपने इश्क के करीब पाऊँ मैं।

वो कितनी खुशगवार हवा का झोंका सा था
दिल कहता यही, अब उसे सीने से लगाऊँ मैं।

जब दुआ को आसमाँ की तरफ़ हाथ उठता है
इश्क ही जेहन में रहे दुआ को भूल जाऊँ मैं।


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, September 17, 2012

{ १९८ } बिसात दरम्याने-ज़िन्दगी






वैसे हम पर तुम्हारे बहुत एहसान हैं
फ़िर कैसे कहे हम बहुत परेशान हैं।

आँख में सजा लिया ये सुनहरा मंजर
आगे राह में सँगरेजे और बियाबान हैं।

मौत आनी है एक दिन, आएगी जरूर
पर अब और जीने में बहुत नुकसान है।

पीछे गहरा समन्दर है, आगे बियाबान
बीच राह में छोड गया मेरा मेहरबान है।

बिछी अजीब बिसात दरम्याने-ज़िन्दगी
ज़िन्दगी और मौत के बीच नीम-जान हैं।


------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


१- नीम-जान = बीमार अवस्था

{ १९७ } नजर लड गयी है






नजर एक महजबीं से लड गय़ी है
दिल में तीर बन कर गड गय़ी है।

कैसे हटा लें उससे हम नजर को
हाय जवानी जिद पर अड गयी है।

नावाकिफ़ थे हम दिल के हाल से
जान अब मुसीबत में पड गय़ी है।

दिल में बसी मोहब्बत की चुभन
हालाते-जाँ साँसत में पड गयी है।

अब बुला भी लो किसी हकीम को
देखो कहाँ तक मर्ज की जड गयी है।


--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, September 16, 2012

{ १९६ ) प्यासी ज़िन्दगी






ये ज़िन्दगी
तो बस
शराब का
एक जाम है,

जिसे पीकर
होठ भीगें,
पर प्यास
फ़िर भी न बुझ पाये,

और प्यासी ज़िन्दगी
बढती जाये।
बढती जाये।।

----------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ १९५ } टूटे रिश्ते





रिश्ते जो थे अजीज दिलो-जान की तरह
वो टूट गये हैं किसी के ईमान की तरह।

नहीं मिल रहा निशान ढूँढे से अब कहीं
सभी मिलते हैं किसी अनजान की तरह।

मुसीबतों के दौर में अब पुकारूँ मैं किसे
दिल में उठ रहे सवालात तूफ़ान की तरह।

गर्द हवाएँ ढँक रही पहचानी सी सूरत को
साँय-साँय करे आलम बियाबान की तरह।

किसे खत लिखूँ किसे सुनायें हाले दिल
कोई आता नही मेरे घर मेहमान की तरह।


----------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, September 15, 2012

{ १९४ } मुझ सी दीवानी





मुझ सी ही दीवानी लगती है वो
पल में रोती, पल में हँसती है वो।

उम्मीद जब कोई जगती सीने में
दरवाजे को रात भर तकती है वो।

दिलबर आते पल भर को पास मे
नई दुल्हन सी फ़िर सजती है वो।

दूरियाँ जब भी दिलों की बढ जातीं
दिल ही दिल में जला करती है वो।

लिख कर कागज मे अपना ही राज
उलझी-उलझी सी फ़िर दिखती है वो।


----------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, September 13, 2012

{ १९३ } लम्बी रातें






आह ! सर्दियों की ये लम्बी रातें
हैं इश्क के लिये ये बेशुमार रातें।

माना हुस्न के बेहिसाब मजहब हैं
पर शैदाइयों की भी हैं लम्बी बातें।

जितना नूर था उन बीती रातों में
उतनी ही रोशन हैं आज की रातें।

इश्क में डूबे फ़िर न उभरेगा कभी
इश्क में करनी होती है हजार बातें।

हुश्न हो जब गैर के इश्क में मगन
उफ़्, तब हमारी होती हैं बेजार रातें।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, September 11, 2012

{ १९२ ) सपने सिर्फ़ सपने रह जायेंगे






मात खाते हैं हम
अपने टूटे हुए सपनों से
जो टूट कर
खँडहर बन कर
धरे के धरे रह जाते हैं,
हमको यह याद दिलाने के लिये
कि
स्थाई कुछ भी नहीं
न हम,
न तुम,
न ही कोई और........

यह तन तो बस आवरण मात्र है
अपनी आयु पूर्ण कर
फ़िर माटी हो जायेगा
और हमारे सपने
सिर्फ़ सपने ही रह जायेंगे।
सिर्फ़ सपने ही रह जायेंगे।।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, September 10, 2012

{ १९१ } खुद्दारी





अच्छा है यही जो रहे खुद्दारी
जेब में रख ले ये दुनियादारी।

गर दर्द छुपा कर हँसेगें हम
तो अश्कों से होगी ये गद्दारी।

हँस के मिलो तो सोचे दुनिया
इसमें मतलब छुपा है भारी।

जो देह के भूखे वो क्या जाने
ये प्यार, ये वफ़ा, ये दिलदारी।

हम बाते करते-सच्ची-सच्ची
किसी को लगती मीठी-खारी।


............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, September 5, 2012

{ १९० } कब तक.... आखिर कब तक





कब तक..... कब तक.....
कायरता ओढे रहोगे.......
जागो....
जागो मेरे भाई.....
सभी कहते हैं मुझसे

पर मैं.....
मैं चल रहा हूँ, आगे बढ रहा हूँ
दिशा ग्यान के बिना
आगे बढना मान बैठा प्रगति की निशानी
इस लिये छोड अपने मूल तत्व को
कर रहा प्रगति की गुलामी
मैं, कट रहा हूँ, मर रहा हूँ
पर आगे बढ रहा हूँ
हो जाये चाहे नष्ट मेरी सभ्यता
हो जाये भ्रष्ट चाहे मेरी मनुजता
मैं भीरु हूँ
मै कायर हूँ
तुम यही समझ लो
यही है मेरी निशानी......


............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १८९ } लिखी पाती नाम तेरे सनम





लो उठा ली मैने कलम
लिखी पाती नाम तेरे सनम।।

मस्ती आँखों में छा जाये
यादें रह-रह कर ललचायें
अनगिन गीत लिखे तेरे मैने
जिनको गा कर मन हर्षाये।

आ पास आ दिल की धडकन
आ गया तरन्नुम का मौसम।।

अब कैसे छोडे हम दुनियादारी
मह-मह महके मेरी फ़ुलवारी
नित नई बहारें यहाँ हैं आती
मस्ती की बगिया सबसे प्यारी।

मस्त यादों के उमडते बादल
अब यूँ आँख न मुझसे चुरा सनम।।

तेरी पायल चूडी और कँगन
हर पल करती हैं छन-छन
मेरे जीवन-पथ में छाई हो
अब तुम ही हो मेरा जीवन।

लगे अब मुझे हर पल ऐसा
तुम ही हो साँसों की सरगम।।


................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, September 3, 2012

{ १८८ } देश भी लजा गया





ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।

        इंसानियत है मर रही
        हैवानियत पसर रही
        हर तरफ़ लूटपाट है
        सूने बजार-हाट हैं
        रोटी को भूख रो रही
        संकट में आस खो रही
        चूल्हे नहीं जल रहे
        घरों में फ़ाँके पड रहे
ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।

        ये धर्म ही न मानते
        ईमान भी न जानते
        मिलावटो का दौर है
        हर मन में बसा चोर है
        शासकों की बुद्धि मँद है
        अपराधी फ़िर रहे स्वच्छंद हैं
        बाहोश होश खो रहे
        न हँस रहे न रो रहे
ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।


............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल