Monday, December 31, 2012

{ २२४ } मर-मरकर जीते रहते





देर हो या कि हो अँधेर, हम बस जीते रहते
मन ही मन रोते, विष पी-पीकर जीते रहते।

मर्यादा की बेडी और हया की हथकडियाँ हैं
बेबस इसाँ बन कर हम जीवन जीते रहते।

अँधे गहरे कूप तले छिप बैठा है अपना सुख
दुख की खाई में ही जीवन नैय्या खेते रहते।

मायावी दुनिया का मँच सजा है रँग-बिरँगा
सुख के लालच में कठपुतली बन जीते रहते।

सच्चाई की हार यहाँ पे, प्यार बना छलावा
दिल में दरार सजाये, मर-मरकर जीते रहते।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, December 27, 2012

{ २२३ } कौन है वो





कौन है वो,
जिसका हमे
होता है आभास
पर वो सामने नहीं।

कौन है वो,
जो छाया बन
साथ-साथ चलता
पर वो दिखता नही।

कौन है वो,
जो देता है हमे
सुखद स्पर्ष
पर वो छूता नहीं।

कौन है वो,
जो देता है हमे
स्वर्णिम आनद
पर वो हँसता नहीं।

कौन है वो,
जो हर दर्द मे
है साथ-साथ
पर कराहता नहीं।

कौन है वो,
जो है
मेरे साथ हर साँस।

कौन है वो,
जिसका करते
हम हर पल,
हर क्षण आभास।

कौन है वो,
जिसको ढूँढे हम
मंदिर-मस्जिद
और गिरजाघर मे।

वो, है यहीं कहीं
पर हम
पा न सके
उसको कहीं।

कौन है वो,
जिसको अब हम
खुद में ढूँढते है।
खुद में ढूँढते है।।

....................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, December 26, 2012

{ २२२ } दिल की बात






दीवानों से दिल की बात न पूछो
किस ने दी दिल को मात न पूछो।

दुनिया कहाँ जानती दिल की बातें
दीवाने से दिल के हालात न पूछो।

ख्वाब और मँजिल सब हुए गुम
कैसे हुए ये गर्दिशे-हालात न पूछो।

हुस्न पर मैं इश्क लुटाता रहता हूँ
हम जैसे दीवानों की जात न पूछो।

जगमगा जायेंगे खुशियों के चिराग
मिली ये इश्क की सौगात न पूछो।



--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २२१ } तसव्वुर से पुर तलावती रातें





खाक नींद आयेगी आँखों को, अगर दीदाए-बेदार होती है
आस्माँ में कभी चाँद-तारे या जुगुनुओं की कतार होती है।

लाज़िम है किसी पर खुशियाँ लुटाना, किसी पे जान देना
यूँ अकेले-अकेले तनहाई में कहाँ रँगीनिये बहार होती है।

हम डूबे हैं इश्क में, इश्क की गली से है वापसी मुश्किल
इश्क में सब्र करना मुश्किल, इश्क तो नौ-बहार होती है।

दिलबर के हुस्न के दिलकश नजारे हैं मेरे दिल पर छाये
तसव्वुर से पुर ये तलावती रातें बडी दिल-अज़ार होती हैं।

दिन में अपने ख्वाबों को लिये फ़िरते हम गलियों-गलियों
ये ढलती हुई शामती शामें मैखाने में ही पुर-खुमार होती है।

कभी भी आसाँ नही होता अपने दिलबर से दोस्ती रखना
आशनाई में अपनी सारी ज़िन्दगी ही निसारे-यार होती है।

जो आबाद कर सके किसी आशिक के इश्क की दुनिया
ऐसी गज़ल-ओ-सुखन की ही आशिक को दरकार होती है।


.................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


दीदाये-बेदार = खुली हुई आँखे, जागना
रंगीनिये-बहार = बसन्त की शोभा
नौ-बहार = बसन्त ऋतु
तसव्वुर = कल्पना
पुर = भरा
तलावती = लम्बी
दिल-अजार = कष्टप्रद
शामती - बदकिस्मत
पुर-खुमार = नशे में चूर
निसारे-यार = प्रेमिका पर निछावर


Monday, December 24, 2012

{ २२० } खत्म होगा सिलसिला अँधेरों का





लकीरों पे नहीं अपने हाथों पे करो भरोसा, मुकद्दर सँवर जायेगा
ये वक्त एक चलता पहिया ही है, गुजरते-गुजरते गुजर जायेगा।

जमाने के दिये गम है जुगनू की रोशनी, जलती-बुझती रहती है
रब के दीपक रहते हैं रोशन, तारीकिये-शब के बाद सहर आयेगा।

ज़िन्दगी में हादसे चाहे तमाम बार गुजरे पर हिम्मत से काम लो
गमों की भीड में अपने बुलन्द हौसलों से ही वक्त सँवर पायेगा।

तन्हाई, खामोशी, दर्द और गमों को अब कोई दूसरा ही नाम दे दो
मस्ती, शादमानी को बनाओ सुरूर मलंगी में वक्त गुजर जायेगा।

खत्म होगा सिलसिला अँधेरों का, जलेंगे फ़िर से टिमटिमाते दिये
खुश्बू फ़ैलाती हुई हवाओं में ये उदासी का मौसम बिखर जायेगा।

रँग बदलती इस दुनिया में कोशिशों से ही सब कुछ बदला करता
बस छोडो थकन जोशो-जुनूँ से बुरे से बुरा वक्त भी सुधर जायेगा।


................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


तारीकिये-शब = रात का अँधेरा
सहर = सुबह, सबेरा
शादमानी = खुशी
सुरूर = नशा
मलंगी = अलमस्ती

Saturday, December 22, 2012

{ २१९ } दिन ढलते दिल डूबे





किस अक्स को आइना तरसता है हमारा
दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा।

कब समाँ दिखेगा ज़ख्मों के भर जाने का
बुरा वक्त जाने क्यों न गुजरता है हमारा।

अधूरी ख्वाहिशों का सिलसिला रह गया है
मँजिल से मुसल्सल फ़ासला रहा है हमारा।

शायद मैं ही सबब बना अपनी शिकस्त का
एहसासे-मसर्रत दर पे नहीं रुकता है हमारा।

हमसे उन सुहानी शामों का चर्चा न कीजिये
उन यादों से ही दिल डूबने लगता है हमारा।


-------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

एहसासे-मसर्रत = सुख

Friday, December 21, 2012

{ २१८ } दिल से दिल लगा के देखो





चुपके-चुपके सबसे नजरें चुरा के देखो
एक बार हमसे भी नजरें मिला के देखो।

मैं ख्वाब हूँ, एहसास और हकीकत भी
खयालों में देखो कभी हाथ लगा के देखो।

दिल मेरा सच्चा है, खरा है, ओ ! दिलबर
जिस कदर चाहो इसे ठोंक-बजा के देखो।

कई सुहाने मँजर आयेंगें नजरों के सामने
अपनी आँखों में मेरा अक्स बिठा के देखो।

रुख पे लाली छायेगी, नजरें भी शरमायेंगी
जरा अपना दिल मेरे दिल से लगा के देखो।

तुम इसे गीत, नज्म या कि कहो गज़ल
लिखे वरक पे दो हरफ़, गुनगुना के देखो।


------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल

मँजर = नजारा
वरक = पन्ना
हरफ़ = अक्षर



Wednesday, December 19, 2012

{ २१७ } बिस्मिल





बिस्मिल छवि अंकित
जन-जन हृदयागार में
अमर कीर्ति तेरी अक्षुण
हिम-शिखर सी संसार में।

मातृभूमि के लिये हो गया
जीवन न्योछावर जिनका
स्वातंत्र आन्दोलन का
इतिहास साक्षी है उनका।

जिनकी स्मृतियों का मनता
सबके हृदय में नित पर्व है
भारत माता को अपने इस
वीर शहीद सपूत पर गर्व है।।

-------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, November 26, 2012

{ २१६ } कहाँ खो गया मेरा आशियाँ





बदल बदल कर रूप
ज़िन्दगी में मिलती है
कभी छाँव ही छाँव
तो कभी धूप ही धूप।

रिश्तों का हरा-भरा मैदान
जाने क्यों लगने लगा अब
रण-क्षेत्र का
पथरीला, कँटीला बियावान।

हर तरफ़ अजीब सा
मचा हुआ है शोर
हो रहा भीषण घमासान
रिश्ते बन गये जंगे-मैदान।

हृदय में आस बसी है
अथाह समुद्र सी
जीवन के साहिल में
फ़ैली है सिर्फ़ रेती ही रेती।

खुशी खोखली हुई
ठठा कर हँस रहा गम
दर्द के सैलाब मे
सब खुशियाँ हुईं गुम।

थक चुका है मन
खँडहर हुआ तन का मकाँ
उखड चुके कदम
बता ऐ ज़िन्दगी !
कहाँ खो गया मेरा आशियाँ।।

-------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, November 24, 2012

{ २१५ } वो प्यार कहाँ है






जीवन के सफ़र की
हमसफ़र हैं
मेरी तनहाइयाँ।

मरुस्थल से
जीवन की
प्यास को बुझा रहे
आँखों से टपके आँसू।

इन पत्थरों के शहर में
बसते हैं
गूँगे-बहरे-स्वार्थी लोग
जो किसी की सुनते नहीं
सिर्फ़ अपनी कहते हैं।

इन पत्थरों के शहर मे
बुझे हुए चिरागों के मध्य
खोखली खुशियाँ हैं
हँसते हुए गम हैं
सुबुकती हुई आशायें हैं।

बेबसी
बेदिली
बेरुखी
इन पत्थरों के शहर की
असल पहचान हैं।

इन पत्थरों के शहर में
हृदय को छू लें
अपना बना लें
निराशा के बवन्डर से निकाल
आशा के आगोश मे समेट लें
अब वो प्यार कहाँ है...........।
..... वो प्यार कहाँ है............।।


............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, November 21, 2012

{ २१४ } प्यासा मन मयूर





जाने कैसा स्वप्न देख रहा है
ये प्यासा मन मयूर
नयनों में नयनों से झाँक रहा है
पर समझ न पाये
ये नयनों के छल-बल।

आशा भरे नयनों से
टटोल रहा है ये
उन पथरीले नयनों को।

उन पथरीले नयनों में
ढूँढ रहा है
अपने दर्द की परछाँईं
उन पथरीले नयनों में
ढूँढ रहा है
उनके हृदय की गहराई।

चुरा कर ले गये है
वो नयन सुख-चैन
विकल हो गया है मन
रो रहा है हृदय
पिघल रहा है दर्द।

पर वो निष्ठुर हृदय
दूर खडा मुस्कुरा रहा है
जाने क्यों फ़िर भी
लगता है जैसे
सपनों में वो आ रहा है।
उसका यह छल-बल
हृदय को भा रहा है।।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, November 16, 2012

{ २१३ } हम दीवानों की ऐसी हस्ती है





हम दीवानों की ऐसी हस्ती है
आज यहाँ हैं, कल वहाँ चले।
मस्ती का आलम साथ चला
हम धूल उडाते जहाँ चले।।

हम भला बुरा सब भूल चुके
नतमस्तक हो मुख मोड चले,
अभिशाप उठा कर माथे पर
वरदान दृगों से छोड चले।।

अब अपना और पराया क्या
आबाद रहें यहाँ रुकने वाले,
हम स्वयं बँधे थे और स्वयं ही
हम अपने बन्धन तोड चले।।

हम दीवानों की ऐसी हस्ती है
आज यहाँ हैं, कल वहाँ चले।।


------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल



Saturday, November 10, 2012

{ २१२ } आदमी, आदमी से डरने लगा है





आदमी इस जहाँ में आदमी से ही डरने लगा है
आँगन में अपने आदमी लाश सा सडने लगा है।

दरअसल सच कब का दफ़न हो चुका कब्र में
झूठ रँग-रोगन कर दिलों में धडकने लगा है।

खारज़ारों की भीड बढ गयी बागो-चमन में
गुलशन को अब यहाँ गुल ही खटकने लगा है।

धमनियों में लहू नही अब घुआँ ही बह रहा
अस्थियाँ समिधा हुईं, दिल दहकने लगा है।

आदमी अब बचे कहाँ हरतरफ़ प्रेत ही प्रेत है
हैवानियत की राह में इंसान जलने लगा है।


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, November 8, 2012

{ २११ } जख्म गहरे-गहरे हैं





पाँव के काँटे, रूह के नश्तर, जीवन-जीवन बिखरे हैं
मेरी प्यासी-प्यासी आँखों में जलते सावन बिखरे हैं।

जीत की शहजादियाँ कभी मिलती नहीं हैं खैरात में
ज़िन्दगी से जीतने को हम कफ़न-कफ़न बिखरे हैं।

दिखता नहीं कोई जो दर्दे-जीस्त का मदावा कर दे
हम तमाशा से हो गये, अँजुमन-अँजुमन उजडे हैं।

कोई तो आवाज आ जाती कहीं से वापस हो कर
ये अपने ही घर के कुऐं हुए कितने गहरे-गहरे हैं।

बहुत सोंच चुका मै फ़िर भी अभी एक सोंच में हूँ
जाने किस सोंच के लिये यहाँ अभी तक ठहरे हैं।


------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


अंजुमन = महफ़िल
मदावा = इलाज करना


Monday, November 5, 2012

{ २१० } मासूम दिल





फ़ूलों की सुगंध,
चाँद-तारों की रोशनी,
प्रकृति के रँग और गीत,
सभी मेरे जज्बात के कत्ल से
परिचित हैं--------

सिर्फ़
तुम नहीं----

मेरा मासूम दिल
दूरी का स्थायी कफ़न
ओढकर
दर्द के मरुस्थल में
गहरे तक दफ़न है,
और
मेरी हर साँस
आर्तनाद कर रही है----

याद है,
मुझे आज भी याद है,
वो दर्दनाक पल,
जब मेरा मासूम दिल
तुम्हारी मोहब्बत
न पाकर
एक प्यासे पँक्षी की मानिन्द
जमीन पर गिरा
और मुझे निहारकर
मर गया-----

मुझे लगा,
उस मासूम दिल के
कत्ल में
मेरा भी हाथ है शायद------


------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, October 18, 2012

{ २०९ } ख्वाहिशों को देखता था कभी ख्वाब मे






देखता रहता था जिन ख्वाहिशों को कभी ख्वाब मे
लिखे जा रहा हूँ उन्हे अब हकीकत की किताब में।

आजाद था तो बाग का मौसम भी कुछ और ही था
खुश्बू भी तेज थी और रँग भी गहरा था गुलाब में।

तेज हवाये दिल की धडकने को और भी बढाती थीं
दिख जाता था उसका नूर हवा में उडते हिजाब में।

अब न ख्वाबों का भरोसा है न यादों पर रही पकड
ये ज़िन्दगी भी कब गुजर पाई है अपने हिसाब में।

नदी का किनारा, घरौंदों को लौटते परिंदों का शोर
अब देखते है रोज आफ़्ताब को डूबते हुए आब में।


----------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, October 17, 2012

{ २०८ } ताकि नीरव मे डूबी रहूँ........






मैनें सुनी है सन्नाटों में गूँज
अपने दिल की गहराइयों में
जहाँ से कोई गुजर कर भी
न गुजरा कोई...................

अपना चेहरा आइने में देख
घबरा कर गुल कर देती हूँ
चिराग............................

कभी-कभी एक आहट
थपकी देती है मुझे
चौकन्ना करती है मुझे......

दो आँखें
खुली हुई
मेरे ही आइने से
मुझे ताकती है
मुझे घूरती हैं
शायद मुझे पहचानने की
कोशिश करती हैं..............

और मैं
अँधकार युक्त सन्नाटे में
खुद को खुद में
समेट कर
छुप जाती हूँ
अपने हृदय की
गहराइयों में..................

ताकि
कोई मुझे जान न ले
कोई मुझे पहचान न ले......

और मैं
अपने नीरव मे
खोई रहूँ...................।
डूबी रहूँ....................।।


---------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, October 7, 2012

{ २०७ } काँटों का बिछौना






पाया है जिसको उसको खोना है
कहती है दुनिया ऐसा ही होना है।

उड लो कितना भी आसमानों में
किसी दिन तो जमींदोज़ होना है।

आजमा लो चाहे कितना भी तुम
ज़िंदगी वक्त का एक खिलौना है।

चार दिन अभी हँस कर काट लो
आगे सिर्फ़ आँसुओं को ही ढोना है।

सितारों के ख्वाबों में रह लो, पर
ज़िन्दगी काँटों का ही बिछौना है।


---------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल



Thursday, October 4, 2012

{ २०६ } आओ-आओ महाकाल !!!






जर्जर माँ भारती की धरती,
रक्त सा उबलता गगन,
उफ़ना रहा समुद्र जल।

नहीं हो रहा कहीं भी
नव-निर्माण का आभास
माँ भारती की कोख में
नही हो रहा कहीं भी
सृजन-शीलता का निवास।

मानव ’वादों’ के सीखचों में
अधमरा बन्दी पडा है
तडप रहा, घिसट रहा
आखिरी साँसें ले रहा है।

जल-थल-नभ में छाया घोर अँधकार
कण-कण में छहराया दूषित विकार
दिगदिगन्त में हहराया हाहाकार।

दूषित हो गया वातावरण
बन्द है सारी वातायन
अविराम मात्र अतिक्रमण।

अब कोई यहाँ उभर कर आये
शिव के पावन त्रिशूल सम
भारत की धरती के दलदल पर
खिले लक्ष्मी-प्रिय फ़ूल सम।

गगन चुम्बी पर्वतों को तलुओं तले दबा
सागर की गहराइयों को कन्धे पर उठा
गगन के विस्तार को बाहों में समेटे
उमड पडे मूर्छित भारत को जगाने
भारत के जीवन की ज्योति को जलाने।

रख रूप विकराल.............
आओ-आओ महाकाल !!!
आओ-आओ महाकाल !!!


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


वातायन = खिडकी


Saturday, September 29, 2012

{ २०५ } एक हसीन ख्वाब






रंगीन रातों में
एक हसीन ख्वाब।।

जैसे हो प्रणय गीत
भीनी सी मुस्कुराहट
जैसे जलती मशाल
निगारीं है रिहाइश,
हुस्न है निसाब,
ऐसा है तेरा शबाब।।

आँखों में काजल
पेशानी में पसीना
बवन्डरों का मौसम
बहारों का महीना,
चेहरा चश्म-ए-आफ़्ताब,
ऐसाहै तेरा शबाब।।

चहचहाते पँछी
गुलजार गुलिस्ताँ
महकती घटायें
हसीन बागबाँ,
छाई रंगीनिये-शराब,
ऐसा है तेरा शबाब।।

रंगीन रातों में
एक हसीन ख्वाब।।


------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


निगारीं = श्रंगारित
निसाब = सरमाया
चश्म-ए-आफ़्ताब = सूरज
रंगीनिये-शराब = शराब की मस्ती



Friday, September 28, 2012

{ २०४ } रहते हैं दिल में याद आने के लिये






ऐसे बस जाते हैं दिल में याद आने के लिये
नये-नये चेहरे, पुरानों को भुलाने के लिये।

पर उसकी वो अदा यादों से जाती ही नही
वो रूठ जाते है फ़िर से मुस्कुराने के लिये।

आँखों का दर्द थम कर फ़िर से छलक पडा
नाकाम कोशिशें तमाम की छुपाने के लिये।

मुस्कुराकर न इतराया करो बहारों पर कभी
कब चले हवा का झोंका सब उडाने के लिये।

फ़िर भी वो दिल पर दस्तक दे रहे बार-बार
बची टूटी सी इमारत उनको दिखाने के लिये।


----------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, September 25, 2012

{ २०३ } ज़िन्दगी हुई बेवफ़ा





ज़िन्दगी हुई बेवफ़ा फ़िर भी मुझे प्यारी लगे
खुशियाँ डूबी गम में फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।

ज़िन्दगी में हर चीज अनोखी सी ही लगती है
मौत सी है ज़िन्दगी फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।

भूली यादें फ़िर ताजा हो जख्मों को कुरेदती हैं
दर्द से हो गई यारी फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।

ज़िन्दगी को तरसाया करते हैं ये गर्दिशे-दौराँ
इम्तिहान है ज़िन्दगी फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।

दिल जख्मी किया कमींगाह से आते तीरों ने
यही राहें ज़िन्दगी की फ़िर भी मुझे प्यारी लगे।


---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


कमींगाह = शिकार के लिये छिपकर बैठने की जगह

Sunday, September 23, 2012

{ २०२ } खोया बचपन





ढूँढ रहा हूँ मैं
अपने बचपन को
आशाओं के आवरण में,

जाने कहाँ छुप गया है
हमारा बचपन,
जाने क्यों वो मेरे सँग
आँख मिचौली खेल रहा है,

जब भी पीछे मुडकर देखता हूँ
अजीब सा आभास होता है
जैसे किसी ने
हर लिया है मेरा बचपन
और दे गया है कुछ
कटु अनुभव,
वो अनुभव
जो मेरा बचपन
मुझे नहीं लौटा सकता।।


---------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, September 22, 2012

{ २०१ } गमों को हँस-हँस कर भुलाओ






दुनिया में सभी को गले से तुम लगाओ
किसी न किसी को हमदर्द तुम बनाओ।

क्यों बैठ गये इन चरागों को बुझा कर
अपनी आँखों से खुद को न तुम छुपाओ।

कभी बाग-चमन-बियाबाँ में भी टहलो
गमों को भी हँस-हँस कर तुम भुलाओ।

महफ़िलों में भी रहते हो तनहा-तनहा
दिल की तन्हाई को अब तुम मिटाओ।

जाँच-परख कर रिश्ते नही बना करते
दिल से ही दिलों को अब तुम मिलाओ।



------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, September 18, 2012

{ २०० } इन्तिहा ये प्यार की







अच्छी नही लगती ये फ़िज़ा मुझे तेरे बगैर
दिन-रात सताये ये ठँडी हवा मुझे तेरे बगैर।

जल रहा सारा बदन इन्तिहा है ये प्यार की
कौन बुझाएगा ये जलन बता मुझे तेरे बगैर।

बैठॊ कुछ और देर पास, तुम ही हो राजदार
अब माँगू किससे प्यार बता मुझे तेरे बगैर।

तुम्ही पर एतमाद है, तुम्ही से उम्रे-जाविदाँ
खुशी के चार पल न होंगे अता मुझे तेरे बगैर।


------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ १९९ } खुद को भूल जाऊँ मै






खुद तजुर्बा कर लूँ और दुनिया को बताऊँ मैं
इश्क को याद रखूँ और खुद को भूल जाऊँ मैं।

कोई तो खास बात है इस धोखेबाज इश्क में
जानते-समझते हुए भी इतने धोखे खाऊँ मैं।

जाने कहाँ गया वो वक्त जब था दुनियावी
अब खुद को अपने इश्क के करीब पाऊँ मैं।

वो कितनी खुशगवार हवा का झोंका सा था
दिल कहता यही, अब उसे सीने से लगाऊँ मैं।

जब दुआ को आसमाँ की तरफ़ हाथ उठता है
इश्क ही जेहन में रहे दुआ को भूल जाऊँ मैं।


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, September 17, 2012

{ १९८ } बिसात दरम्याने-ज़िन्दगी






वैसे हम पर तुम्हारे बहुत एहसान हैं
फ़िर कैसे कहे हम बहुत परेशान हैं।

आँख में सजा लिया ये सुनहरा मंजर
आगे राह में सँगरेजे और बियाबान हैं।

मौत आनी है एक दिन, आएगी जरूर
पर अब और जीने में बहुत नुकसान है।

पीछे गहरा समन्दर है, आगे बियाबान
बीच राह में छोड गया मेरा मेहरबान है।

बिछी अजीब बिसात दरम्याने-ज़िन्दगी
ज़िन्दगी और मौत के बीच नीम-जान हैं।


------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


१- नीम-जान = बीमार अवस्था

{ १९७ } नजर लड गयी है






नजर एक महजबीं से लड गय़ी है
दिल में तीर बन कर गड गय़ी है।

कैसे हटा लें उससे हम नजर को
हाय जवानी जिद पर अड गयी है।

नावाकिफ़ थे हम दिल के हाल से
जान अब मुसीबत में पड गय़ी है।

दिल में बसी मोहब्बत की चुभन
हालाते-जाँ साँसत में पड गयी है।

अब बुला भी लो किसी हकीम को
देखो कहाँ तक मर्ज की जड गयी है।


--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, September 16, 2012

{ १९६ ) प्यासी ज़िन्दगी






ये ज़िन्दगी
तो बस
शराब का
एक जाम है,

जिसे पीकर
होठ भीगें,
पर प्यास
फ़िर भी न बुझ पाये,

और प्यासी ज़िन्दगी
बढती जाये।
बढती जाये।।

----------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ १९५ } टूटे रिश्ते





रिश्ते जो थे अजीज दिलो-जान की तरह
वो टूट गये हैं किसी के ईमान की तरह।

नहीं मिल रहा निशान ढूँढे से अब कहीं
सभी मिलते हैं किसी अनजान की तरह।

मुसीबतों के दौर में अब पुकारूँ मैं किसे
दिल में उठ रहे सवालात तूफ़ान की तरह।

गर्द हवाएँ ढँक रही पहचानी सी सूरत को
साँय-साँय करे आलम बियाबान की तरह।

किसे खत लिखूँ किसे सुनायें हाले दिल
कोई आता नही मेरे घर मेहमान की तरह।


----------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, September 15, 2012

{ १९४ } मुझ सी दीवानी





मुझ सी ही दीवानी लगती है वो
पल में रोती, पल में हँसती है वो।

उम्मीद जब कोई जगती सीने में
दरवाजे को रात भर तकती है वो।

दिलबर आते पल भर को पास मे
नई दुल्हन सी फ़िर सजती है वो।

दूरियाँ जब भी दिलों की बढ जातीं
दिल ही दिल में जला करती है वो।

लिख कर कागज मे अपना ही राज
उलझी-उलझी सी फ़िर दिखती है वो।


----------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, September 13, 2012

{ १९३ } लम्बी रातें






आह ! सर्दियों की ये लम्बी रातें
हैं इश्क के लिये ये बेशुमार रातें।

माना हुस्न के बेहिसाब मजहब हैं
पर शैदाइयों की भी हैं लम्बी बातें।

जितना नूर था उन बीती रातों में
उतनी ही रोशन हैं आज की रातें।

इश्क में डूबे फ़िर न उभरेगा कभी
इश्क में करनी होती है हजार बातें।

हुश्न हो जब गैर के इश्क में मगन
उफ़्, तब हमारी होती हैं बेजार रातें।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, September 11, 2012

{ १९२ ) सपने सिर्फ़ सपने रह जायेंगे






मात खाते हैं हम
अपने टूटे हुए सपनों से
जो टूट कर
खँडहर बन कर
धरे के धरे रह जाते हैं,
हमको यह याद दिलाने के लिये
कि
स्थाई कुछ भी नहीं
न हम,
न तुम,
न ही कोई और........

यह तन तो बस आवरण मात्र है
अपनी आयु पूर्ण कर
फ़िर माटी हो जायेगा
और हमारे सपने
सिर्फ़ सपने ही रह जायेंगे।
सिर्फ़ सपने ही रह जायेंगे।।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, September 10, 2012

{ १९१ } खुद्दारी





अच्छा है यही जो रहे खुद्दारी
जेब में रख ले ये दुनियादारी।

गर दर्द छुपा कर हँसेगें हम
तो अश्कों से होगी ये गद्दारी।

हँस के मिलो तो सोचे दुनिया
इसमें मतलब छुपा है भारी।

जो देह के भूखे वो क्या जाने
ये प्यार, ये वफ़ा, ये दिलदारी।

हम बाते करते-सच्ची-सच्ची
किसी को लगती मीठी-खारी।


............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, September 5, 2012

{ १९० } कब तक.... आखिर कब तक





कब तक..... कब तक.....
कायरता ओढे रहोगे.......
जागो....
जागो मेरे भाई.....
सभी कहते हैं मुझसे

पर मैं.....
मैं चल रहा हूँ, आगे बढ रहा हूँ
दिशा ग्यान के बिना
आगे बढना मान बैठा प्रगति की निशानी
इस लिये छोड अपने मूल तत्व को
कर रहा प्रगति की गुलामी
मैं, कट रहा हूँ, मर रहा हूँ
पर आगे बढ रहा हूँ
हो जाये चाहे नष्ट मेरी सभ्यता
हो जाये भ्रष्ट चाहे मेरी मनुजता
मैं भीरु हूँ
मै कायर हूँ
तुम यही समझ लो
यही है मेरी निशानी......


............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १८९ } लिखी पाती नाम तेरे सनम





लो उठा ली मैने कलम
लिखी पाती नाम तेरे सनम।।

मस्ती आँखों में छा जाये
यादें रह-रह कर ललचायें
अनगिन गीत लिखे तेरे मैने
जिनको गा कर मन हर्षाये।

आ पास आ दिल की धडकन
आ गया तरन्नुम का मौसम।।

अब कैसे छोडे हम दुनियादारी
मह-मह महके मेरी फ़ुलवारी
नित नई बहारें यहाँ हैं आती
मस्ती की बगिया सबसे प्यारी।

मस्त यादों के उमडते बादल
अब यूँ आँख न मुझसे चुरा सनम।।

तेरी पायल चूडी और कँगन
हर पल करती हैं छन-छन
मेरे जीवन-पथ में छाई हो
अब तुम ही हो मेरा जीवन।

लगे अब मुझे हर पल ऐसा
तुम ही हो साँसों की सरगम।।


................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, September 3, 2012

{ १८८ } देश भी लजा गया





ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।

        इंसानियत है मर रही
        हैवानियत पसर रही
        हर तरफ़ लूटपाट है
        सूने बजार-हाट हैं
        रोटी को भूख रो रही
        संकट में आस खो रही
        चूल्हे नहीं जल रहे
        घरों में फ़ाँके पड रहे
ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।

        ये धर्म ही न मानते
        ईमान भी न जानते
        मिलावटो का दौर है
        हर मन में बसा चोर है
        शासकों की बुद्धि मँद है
        अपराधी फ़िर रहे स्वच्छंद हैं
        बाहोश होश खो रहे
        न हँस रहे न रो रहे
ये कैसा वक्त आ गया, देश भी लजा गया
बेतौर रँग-ढँग से लोकतँत्र चरमरा गया।


............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, August 31, 2012

{ १८७ } क्या है ज़िन्दगी...?






कागज के कोरे पन्ने
ज़िन्दगी तो नही होते ?
और न ही काली स्याही
का नाम है ज़िन्दगी ??

ज़िन्दगी एक रिश्ता है
लहर का लहर से मिलन,
धूप काछाँव से मिलन,
दुख का सुख से मिलन,
रात का दिन से मिलन,
अँधेरे का रोशनी से मिलन,
ये मिलन ही ज़िन्दगी है।।

ज़िन्दगी एक सफ़र है --
सूर्य के उदित होने पर
पृथ्वी पर आने वाली
पहली किरण से शुरू हो कर
सूर्य के अस्त होने पर
पृथ्वी पर पडने वाली
अंतिम किरण तक का सफ़र।।

ज़िन्दगी सुबह की पहली रश्मि है
और मौत शाम की अन्तिम किरण।।


................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, June 11, 2012

{ १८६ } मुक्ति की आस





मेरे जीवन का दृष्य
सामने मेरे खडा है ऐसे
जैसे कोई
आईना और अक्स ।


बाल अवस्था,
कटी जवानी,
हरी-भरी मनभावन
और धानी-धानी ।


अब पतझड में
हूँ तन्हा-तन्हा
खडा हुआ
बिन दाना-पानी ।


मन में लिये
मूक-विश्वास
जीवन-चक्र से
मुक्ति की आस ।।


................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १८५ } इंसान और ईमान






इंसान का ईमान मर गया है
क्योंकि इंसान बिक गया है।

कुछ इंसान सस्ते में बिक जाते हैं
कुछ इंसानों की कीमत बहुत ऊँची है।

ईमान को इंसान ने
बाजार में बिकने के लिये
सजा रखा है।

इंसान का रक्त
ठँडा हो चुका है।

इंसान
अब अपने ही पसीने में
दुर्गंध महसूस करता है।

इंसान
अब ईमान की सौगंध
नही खाता।

क्योंकि
इंसान का ईमान
बिक चुका है।
मर चुका है।।

............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, June 9, 2012

{ १८४ } यही ज़िन्दगी है





जहाँ हों खुशियाँ
गम भी हों बेशुमार,
कहें इसी को ज़िन्दगी,
यही ज़िन्दगी है।
यही ज़िन्दगी है।।

बुझे दीप को,
जो लौ जलाती रहे,
कहें इसी को रोशनी,
यही रोशनी है।
यही रोशनी है।।

सजा भी न दे वो,
और खता भी छुपाये,
कहें इसी को सादगी,
यही सादगी है।
यही सादगी है।।

रहे दूर सुख में,
मगर हो साथ दुख में,
कहें इसी को दोस्ती,
यही दोस्ती है।
यही दोस्ती है।।

सँग हो पिया के,
प्यास फ़िर भी हो बाकी,
कहें इसी को तिश्नगी,
यही तिश्नगी है।
यही तिश्नगी है।।

बिना कुछ भी कहे,
अनकही जो समझे,
कहें इसी को आशिकी,
यही आशिकी है।
यही आशिकी है।।

वो शान्ति में खुश,
वो शोर में खुश,
कहें इसी को बेदिली,
यही बेदिली है।
यही बेदिली है।।

न कुछ कर सके,
न कुछ कर ही पाये,
कहें इसी को बेबसी,
यही बेबसी है।
यही बेबसी है।।


..................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, June 8, 2012

{ १८३ } प्यार का पैगाम






मोहताज नही है वो
और न ही
मैं हूँ मोहताज,
न ही है कोई अवरोध,
जो बीच में आये
हम दोनो के आस-पास।

बात दिल की दिल से
जब-जब भी कही
खनकती हुई संगीत सी
हवाओं में लहराकर
सरगम सा सँदेश बनी।

मूक भाषा में ही हम
बात करें अपने मीत से
जो न जाने
प्रीत के सिवा
और कुछ भी।

हर द्वेष से परे
एक ही जबान.
एक ही पैगाम,
प्यार का पैगाम।
प्यार का पैगाम।।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, June 7, 2012

{ १८२ } प्यार का ज़िन्दगी से कर इजहार






ज़िन्दगी की जंग में इतनी जल्दी गया तू थक हार
पतझड तो पतझड है, भार हुई तुझे बसन्त बहार।

प्यार अर्पण किया जिस को उनसे तुझे क्या मिला
अनमोल ज़िन्दगी है तेरी, अब उस से ही कर प्यार।

संग-रेज़ों को हटा अब, खारजारों को तू उखाड फ़ेंक
हो मंजिल आसान, रहगुजर कुछ ऐसी कर तैयार।

रात होने को है पर मंजिल अभी है दूर, बहुत दूर
ओ मुसाफ़िर ! कारवाँ की अपने तेज कर रफ़्तार।

महफ़िल सजे, गमगीन माहौल सुर-साज में बदले
संगीतमय प्यार का इस ज़िन्दगी से कर इजहार।


..................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १८१ } ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है





दिन की शान है
सूरज ढलने तक।

इन्सान की शान है
ज़िन्दगी के चलने तक।

हर ठौर पर साँस लेती है ज़िन्दगी,
हर दौर से गुजरती है ज़िन्दगी।

ज़िन्दगी,
अपने हर पडाव पर
खडी हो सोंच रही है--

जाना था सफ़र पर मुझे
क्यों मैं रास्ते भर बेहोश रही ?
क्यों न भ्रम की हद को पार कर
सच की सरहद छू सकी ?

ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है।
ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है।।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, June 6, 2012

{ १८० } जीवन और मृत्यु





खोखला जिस्म
उखडती साँसें
पर फ़िर भी
रुक-रुक कर
चलने की चाह जिन्दा है
शायद इसलिये
हर उम्र अपनी
पीढी को ढो रही है।

कदम लडखडाते हैं
और संभलते हैं,
उम्र ढल रही है पर
सूरज अभी तक नही ढला है।

सीने से लिपटी हुई
तमाम खुशियाँ
दम तोड देती है,
हर आस रेत सी
हाथ से फ़िसल जाती है।

जीवन की गरमी
और
मौत की ठंडक
दोनो क्षितिज के पास
जब मिलती हैं
तब गले से लग
हैरान होकर ज़िन्दगी
पूछती है मौत से,
ऐ मौत ! तू पहले क्यों न मिली,
क्यों मिली थी ज़िन्दगी ?

मौत कहती है,
ऐ ज़िन्दगी !
ढल गई उम्र तेरी
पर ढला न था सूरज तेरा।

चलो छोडो ये गिले-शिकवे
हम दोनो
यथार्थ हैं।

हम हैं
जीवन और मृत्यु।
मृत्यु और जीवन।।


........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, June 4, 2012

{ १७९ } नागफ़नी





रेत के कण-कण में
वीरानी के समन्दर में तैरता
खामोशी का लबादा
ओढ कर खडा है
एक नागफ़नी का पौधा।

ऊपर आसमान की तरफ़
देख कर
अपनी पूरी
आन बान और शान
के साथ
दृढ नागफ़नी का पौधा
मानो कह रहा है -

मैं अकेला नहीं हूँ
ये तन्हाई,
ये खामोशी,
ये वीरानी,
मेरे साथ है।।


....................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, June 3, 2012

{ १७८ } सितमगर





है अफ़सोस, ये कैसा मेरा मुकद्दर निकला
चला जो राह वो गम की रहगुजर निकला।

हर वक्त आँखों में रहा मोहब्बत का जुनूँ
उफ़, दिलबर मेरा दिल का पत्थर निकला।

उजाड बस्ती के जैसा मंजर हुआ दिल मेरा
तेरा खयाल भी तुम सा सितमगर निकला।

सफ़र-ए-हयात में तनहाई ही मेरा साथी है
दिल ने चाहा जिसे वो जाँआजार निकला।

गौरो-फ़िक्र की फ़ुरसत नही सितमगर को
कि उसके ख्वाबों से मैं क्यों कर निकला।

यूँ तो मैं शख्स हूँ बहुत ही रंगीन मिजाज
मेरा दर्द मेरी सुखनों में उभर कर निकला।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



जाँआजार = सताने वाला
गौरो-फ़िक्र = सोच-विचार
सुखन = गजल, गीत



Thursday, May 31, 2012

{१७७ } ढूँढे तुम्हे ये नज़र






शबो-रोज डगर-डगर, ढूँढे तुम्हे ये नजर
हाल मेरा देख, तुम हो कहाँ ऐ हमसफ़र।

न रोऊँ, न हँस सकूँ, न जागूँ न सो सकूँ
कैसी आ गई घडी, है कैसा तेरा ये असर।

रात के ख्वाबों में तू, दिन के खयालों में तू
ज़िन्दगी लगे न ज़िन्दगी, कैसा है ये कहर।

हर तरफ़ छाये अँधेरे, जख्म भी दिये तेरे
जाऊँ तो अब जाऊँ कहाँ, है मेरी किसे खबर।

ज़िन्दगी का सफ़र, बन गया है यादों का घर
न आग हुई, न धुआँ पर जल गया ये जिगर।

तुम यहाँ और वहाँ भी हर तरफ़ आती नजर
थाम लेता मैं तुम्हे काश तुम होते मेरे अगर।


---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १७६ } तन्हा जीवन





खामोशी ओढे हुये रात,
सूनी-सूनी पगडँडियाँ,
कोई हलचल नहीं,

जीवन में बसी खामोशी
मौत सी डरा रही है।

पर क्यों डरा रही है........?

उस रेतीले बँजर शहर से,
कँटीले झाड से,
जीवन को,

जो महसूस तो करता है
पर कह नही सकता
कि
मैं तन्हा हूँ।
मैं तन्हा हूँ।।


................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, May 29, 2012

{ १७५ } ज़िन्दगी कुछ सुन रही है





सूनी सी पगडँडी पर
एक आस अभी
साँसें ले रही है।

आँखों में निर्जीव आशा
बुझ-बुझ कर
जल रही है।

कोई तो आयेगा
इस राह पर___
देखे हैं चिन्ह मैंनें
जीवन के यहाँ पर___

पदचिन्ह कहो या
साँसों की
धीमी सी आहट।

इँतज़ार में पदचापों की
सरसराहट सुन रही है।

सूनी सी पगडँडी पर
ज़िन्दगी कुछ सुन रही है।
हाँ ! ज़िन्दगी कुछ सुन रही है।।


............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल