Monday, March 21, 2016

{ ३२६ } मन




मन की सुनना,
मन की करना,
मन की सुनते जाना है।

मन ही काशी,
मन ही काबा,
मन ही बेद-पुराणा है।

मन अच्छा तो
जग अच्छा है,
ये मन का भेद पुराना है।

मन जब बच्चा है,
मन तब अच्छा है,
तब ही मन कल्याणा है।

मन चंगा तो
कठौती में गंगा
मन ही स्वर्ण-खजाना है।

मन के हारे हार
मन के जीते जीत
बस इतना ही मन को समझाना है।।

............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, March 3, 2016

{ ३२५ } ख्वाहिश





अपने सुनहरे ख्वाबों की परतों में
हमने बहुत ही करीने से सजा कर
अपने कुछ टूटे अरमानों के दर्मियाँ
अपनी एक छोटी सी ख्वाहिश रख दी है।

तमाम कोशिशें की मगर
ख्वाहिशें हैं कि पूरी होती ही नहीं
दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती हैं
किसी गहरे अन्धे कुएँ की तरह।

आ सको अगर तो आ जाओ
इस तरफ़ जो कभी भूले से ही तुम
अपनी एक चुटकी भर तमन्ना
हौले से मेरी ख्वाहिशों में मिला देना।

तब शायद पूरी हो सकें
मेरी वो तमाम ख्वाहिशें
जो आज भी अपलक
तुम्हारी ही बाट जोह रही हैं।।

................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल