दर्दे-जीस्त से दिल बहुत बेहाल हुआ
पर अपने गुनाहों का न मलाल हुआ।
यूँ हीं न हुई खारजारी जीस्ते-रहगुजर
हैवान बना इंसान जी का जँजाल हुआ।
रो रही तमन्ना सुबक रहा है मुसाफ़िर
ज़िंदगी से आदमी कितना बेहाल हुआ।
अनगिनत तोड़ॆ है दिल और दरपन भी
पर कभी न बेवफ़ाई का खयाल हुआ।
तन्हाई में बैठ रो-रोकर बिता रहे दिन
अपनी ही ज़िंदगी पर खड़ा सवाल हुआ।
................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल
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