कोई नई रब्त लबों पर अब कहाँ से आयेगी
धडकनों में धडकन अब कहाँ से समायेगी।
दिल में पत्थरों की दीवारें बना ली हैं हमने
गजलो-सुखन जेहन में अब कहाँ से आयेंगीं।
मैं इस सूने - बियावान में कब से भटक रहा
छाया है अँधेरा, रोशनी अब कहाँ से आयेगी।
चमन के गुलों के रँग भी नजरों से ओझल हैं
वो खुशबू, वो मादकता, अब कहाँ से आयेगी।
गमों से लबरेज़, गम के आँसू पीने का आदी हूँ
रिंदी भी यह सन्नाटा अब कहाँ से तोड पायेगी।
गम के खजाने दिल में गहरे तक दफ़्न हो गये
मुस्कुराहट की मेरी अदा अब कहाँ से आयेगी।
लफ़्ज़ अश्कों से ढले, चेहरे की रौनकें हवा हुईं
जुस्तज़ू है, खुशियाँ लौट अब कहाँ से पायेंगीं।
............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल
रब्त = गज़ल
रिंदी = मनमौजीपन
जुस्तजू = तलाश
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