शबो-रोज डगर-डगर, ढूँढे तुम्हे ये नजर
हाल मेरा देख, तुम हो कहाँ ऐ हमसफ़र।
न रोऊँ, न हँस सकूँ, न जागूँ न सो सकूँ
कैसी आ गई घडी, है कैसा तेरा ये असर।
रात के ख्वाबों में तू, दिन के खयालों में तू
ज़िन्दगी लगे न ज़िन्दगी, कैसा है ये कहर।
हर तरफ़ छाये अँधेरे, जख्म भी दिये तेरे
जाऊँ तो अब जाऊँ कहाँ, है मेरी किसे खबर।
ज़िन्दगी का सफ़र, बन गया है यादों का घर
न आग हुई, न धुआँ पर जल गया ये जिगर।
तुम यहाँ और वहाँ भी हर तरफ़ आती नजर
थाम लेता मैं तुम्हे काश तुम होते मेरे अगर।
---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल
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