एक बहती नदिया
एक डगमगाती कश्ती
टूटती पतवारें
मासूम सी सिहरी हुई
जीने की जद्दो-जहद
पर असमंजस से भरी हुई
क्यों कि....
दूर होते किनारे
नजदीक आता हुआ समन्दर
जहाँ सब कुछ विलीन हो जाना है....
सब कुछ विलीन.................!!!!!
................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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