Wednesday, March 21, 2012

{ ११८ } हमारी बात






हमसे पूछिये कुछ हमारी बात
क्यों करते सिर्फ़ घात-प्रतिघात।

आँखों पर पट्टियाँ होठ सिले हुए
यह कैसी हुई हमारी मुलाकात।

खाक हो गये हैं धधकने से पहले
उठती ऊँगलियाँ हो रहे सवालात।

उजाड कर घर घरौंदे की पेशकश
कैसे सह लूँ आपकी यह वारदात।

न ही है दरो-दीवार, न ही है छत
उफ़्फ़ ये कैसी दी है मुझे हवालात।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


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