कभी हँसते हुए, कभी रोते हुए, यूँ ही कट जाने दो
ज़िन्दगी जीना काम है बस यूँ ही निपट जाने दो।
जिनसे गुलशन रूठा, जो हुए समन्दर उदासी के
मेरी इन सारी खुशियों को उनमे ही बँट जाने दो।
ज़ौर-ओ-सितम, तल्खियाँ, रुसवाइयाँ, मजबूरियाँ
दर्दे - दिल दुनिया के मेरे सीने में सिमट जाने दो।
रूह भी कब खुश रही है इस ज़िस्म-ए-फ़ानी से
ज़िस्म, पोशाक पुरानी है फ़टती है फ़ट जाने दो।
जल्द ही करीब आयें मौत से मिलने की घडीयाँ
ये जीस्त घटती जाती है इसे यूँ ही घट जाने दो।
कब रह पाया है कोई भी इस रैन बसेरे में हमेशा
ये अपना घर नही मुझे अपने घर पलट जाने दो।
................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल
ज़ौर-ओ-सितम = अत्याचार और जुल्म
तल्खी = कटुता
जिस्म-ए-फ़ानी = नश्वर शरीर
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