फ़िर आज मैने एक गज़ल गुनगुनाई है
दिल में आज चोट बडी ही गहरी खाई है।
पत्थर बने मोम आबाशर भी गए हैं थम
मेरे दिल की पीर पर लगती तुम्हे पराई है।
गुमसुम हवा-मौसम, सन्नाटा टूटे आहों से
आज फ़िर से आँख आँसुओं से डबडबाई है।
अनकही तकरीरें, दिल्लगी तफ़रीह भी बन्द
ख्वाब हैं खामोश, अब साथी सिर्फ़ तनहाई है।
मौसमे-गुल तो कई बार आ-आ कर चले गये
मुद्दतें बीती मेरे चेहरे पर आयी नही रानाई है।
ऐ संगदिल तुम मस्ती मे डूबे हमसे हो बेखबर
पर ज़िन्दगी हमने झूठे सहारॊं से ही बहलाई है।
इस दर्दो-सुखन के हरफ़ों को जरा गौर से देखो
इसमे मेरे ज़ज़्बातों के अश्कों की ही रोशनाई है।
................................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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