काश ! कहीं तुम मेरे होते।
भावों को मिल जाते अम्बर,
सतरंगी हो जाते सब मंजर,
स्वप्निल सभी सबेरे होते,
काश ! कहीं तुम मेरे होते ।
शब्दों का तब छोड़ तमाशा,
हम रचते नयनों की भाषा,
ग़म भी नहीं घनेरे होते,
काश ! कहीं तुम मेरे होते ।
रूप जहाँ खुल कर मुस्काता,
रस में भीगी गन्ध लुटाता,
ऐसी जगह बसेरे होते,
काश ! कहीं तुम मेरे होते ।
..................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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