कितना दिलकश है तेरा ये हुस्न-ए-शबाबी
बडी मादक हैं तेरे ये चश्म-ए-आफ़्ताबी
हसीन हैं तेरे ये होठ नीलोफ़रे-माहताबी
नाजुक गुल से है तेरे ये दस्त-ए-गुलाबी
रुख पर उतर आया हो जैसे रंग-ए-शहाबी
तुम हुस्न-ए-मुजस्सम हो, तुम हो हुस्न-ए-सादगी
तुम हुस्न-ए-फ़िरंगी नही, तुम हो जमाले-खुदाबन्दी
भौंचक है हर शख्स देखकर तेरा ये आबो-ताबी
तेरे हुस्न में ऐसा उलझा हुआ हूँ मै
कि अब तो जमाना भी समझे है मुझको शराबी ।
............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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