वैसे-वैसे ही बढ़ती जाती है
अपने हँसते हुए चेहरे को
सपने में देखने की अभिलाषा,
फिर, कहीं दूर
सपने में सुनाई पड़ती है
अपने ही सिसकने की आवाज,
और छिन जाता है
सुन्दर सलोना सपना।
सुन्दर सलोने सपने को
बिखरते हुए,
टूटते हुए,
अब नहीं देखा जाता।
चलो,
अब त्याग ही देते हैं
इन टूटते-बिखरते
मायावी सपनों को देखना,
और निकल चलते हैं
इन ख्वाबों की कफ़स से
कहीं दूर, बहुत दूर।।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
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