तुम्हें याद है
पिछली बार तुम कब ठिठके थे
अपने अंतःकरण के द्वार पर,
कब खोली थी
साँकल तुमने
अपने अंतर्मन की,
कब बजे थे
कुछ शब्द
तुम्हारे कानों में
घण्टियों की तरह,
और तुम
लड़खड़ाए थे
संभल जाने को,
तुम सम्हले नहीं,
आजतक उसी तरह
लड़खड़ा रहे हो,
तुम्हारी यह लड़खड़ाहट
शायद तुमसे चिपकी ही रहेगी,
दीवार पर चिपके,
किसी इश्तिहार की तरह। ।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
अंतःकरण के द्वार पर आज भी लड़खड़ा रहे हो । बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए बहुत आभार आपका
Deleteबहुत सुन्दर गहन अर्थ लिए
ReplyDeleteलाजवाब सृजन
बहुत आभार आपका उत्साह वर्धन के लिए
Deleteबहुत सुंदर सराहनीय सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
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