Tuesday, September 27, 2022

{३५७ } गति और नियति





घर मे दीवारें हैं 
दीवारों मे बन्द खिड़कियाँ हैं 
बन्द खिड़कियों से 
टकराकर अपना सर 
लहूलुहान पड़ी है 
मेरी संवेदना। 

संवेदना ही आरोपित है 
संवेदना ही अपराधी है 
संवेदना ही प्रताड़ित है 
संवेदना ही दण्डित है। 

आरोप सह कर 
प्रताड़ना सह कर 
और दण्ड भी सह कर 
मेरी संवेदना अभी भी ज़िंदा है,
क्योंकि यही उसकी गति है,
और यही उसकी नियति है।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

No comments:

Post a Comment