Sunday, February 24, 2013

{ २४७ } कैसे कह दूँ ये प्यास नही है





कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।

आस जब-तब लुभा रही है
प्यास और जगा रही है
मन हुआ तपता धरातल
दूर कहीं दिखता है जल
कैसे कह दूँ ये हुलास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।

मोहित है मन तरंगित काया
जाने किसका नेह समाया
वश नही मन पाँखों पर
बैठे नैन चिरैय्या किन शाखों पर
कैसे कह दूँ ये मन का मधुमास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।

वो कौन मुझको दूर से पुकारे
नेह दृष्टि से मुझको निहारे
अनुभूतियाँ नित हो रही सघन
देह की बढ रही तपन
कैसे कह दूँ ये आस नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।


................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


5 comments:

  1. बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति है भाई !!!

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  2. आपकी हर रचना लाजवाब होती है। पढ़कर मन मुदित हो उठता है। बधाई, जय हो।

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  3. aap jabab nhi acharya shree ,,,,,,,,,,, ye pyas hain badi bahut sunder

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  4. बहुत सुन्दर पन्तियाँ हैं भईया |

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  5. बहुत प्यारी कविता | सुन्दर रचना | आभार

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