कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।
आस जब-तब लुभा रही है
प्यास और जगा रही है
मन हुआ तपता धरातल
दूर कहीं दिखता है जल
कैसे कह दूँ ये हुलास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।
मोहित है मन तरंगित काया
जाने किसका नेह समाया
वश नही मन पाँखों पर
बैठे नैन चिरैय्या किन शाखों पर
कैसे कह दूँ ये मन का मधुमास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।
वो कौन मुझको दूर से पुकारे
नेह दृष्टि से मुझको निहारे
अनुभूतियाँ नित हो रही सघन
देह की बढ रही तपन
कैसे कह दूँ ये आस नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।
................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति है भाई !!!
ReplyDeleteआपकी हर रचना लाजवाब होती है। पढ़कर मन मुदित हो उठता है। बधाई, जय हो।
ReplyDeleteaap jabab nhi acharya shree ,,,,,,,,,,, ye pyas hain badi bahut sunder
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पन्तियाँ हैं भईया |
ReplyDeleteबहुत प्यारी कविता | सुन्दर रचना | आभार
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें और लेखन पसंद आने पर अनुसरण करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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