अब मन शुद्ध नही होते।।
कपट, छल-छन्द के
गहरे दलदल में
हम रहते हैं सोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।१।।
वैमनस्यता के कीचड में
गोते लगाने की आदत से
कभी मुक्त नही होते।
अब मन शुद्ध नही होते।।२।।
खुद को दुख में डुबो
दूसरों के खातिर
दुख की फ़सल है बोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।३।।
घृणा, कुण्ठा और पाप की
गठरी सिर पर लाद
जीवन भर हैं ढोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।४।।
------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल
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