Monday, February 27, 2012

{ १०४ } मनोदशा....






मैं आदमी हो कर आज मर गया
क्या मैं फ़र्ज़ अपना पूरा कर गया।

न रह गया है अब घर-बार ही कोई
कहता है ज़माना, मैं क्या कर गया।

वक्त पर ही गुलशन में है गुल खिला
वक्त पर ही यह गुल भी गुज़र गया।

शौके आवारगी कभी रही नही अपनी
फ़िर क्यों मैं आज इतना सिहर गया।

हाथ खाली हैं और जेबें भी हुई खाली
इसी लिये अपना दिल आज डर गया।


............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

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