बादलों में न जाने क्यों वो आब आता नहीं
हवाओं का रुख अब्र को हम तक लाता नहीं|
जिन दरख्तों के तले मिलती थी मुझे छाँव
उन दरख्तों तक अब मुझे कोई बुलाता नहीं|
मंजिलों को जा रहा अब कोई काफिला नहीं
उनके वास्ते अब कोई हौसला बढाता नही|
कुछ अल्फाज़ लगने लगते हैं शमशीर सरीखे
कोई उन अल्फाजों को शमशीर है थमाता कहीं|
मैं नहीं अशआर कहता गुनगुनाने के लिये ही
मेरे सुखन पढने वाला सोचता रह जाता कहीं|
................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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