Tuesday, November 1, 2011

{ ६० } ग़मों से यारी हो गई





इस दुनियादारी के भँवर में फ़ंस कर
गम सहते-सहते गमों से यारी हो गई।
खामोशी ओढकर उदासी और बेचैनियाँ
जहर से बुझी तलवार दुधारी हो गई ।

गमों से यारी हो गई.......................... ।।

पाले हुए थे जो भरम वो सभी टूटे
हकीकत सुनहरे ख्वाबॊं से टकराती
दो रुखी तस्वीर हुई खुद की कहानी
खुद को सुनाना ही लाचारी हो गई ।

गमों से यारी हो गई.......................... ।।

कैसे-कैसे अजीबोगरीब से मंजर देखे
अश्कों में डूबी खुशियों पर चढती धूप
दिल पर बोझ, अन्देशों में उलझे दिन
सोंचों में डूबी हुई शामें हमारी हो गई ।

गमों से यारी हो गई.......................... ।।

बढते - बढते गम हो गये अनगिनत
खुशियाँ तो उँगलियों पर ही गिनता
बढे गमों का अब क्या हिसाब लगायें
दर्दीली आहॊं की ही बे-शुमारी हो गई ।

गमों से यारी हो गई.......................... ।।

हमको कभी भी न रास आती हैं
इस फ़रेबी जमाने की महफ़िलें
दिल के सभी गरीब ही निकले
निस्बतें भी मतलब बरारी हो गईं ।

गमों से यारी हो गई.......................... ।।

हम हैं जमाने के भटके हुए मुसाफ़िर
कुछ मकसद था इस जहाँ में आने का
देख अपनों की अपनों से ही बेवफ़ाई
खुद में सिमटना ही लाचारी हो गई ।

गमों से यारी हो गई.......................... ।।


......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


निस्बत=संबन्ध
मतलब बरारी=स्वार्थपरता

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