Tuesday, November 15, 2011

{ ६७ } पीने के सबब - ३








खुद को कहाँ छोड आये भूल गया, खुद की तलाश में पी लेता हूँ
ज़िन्दगी लुटी रहगुज़र में, ज़िन्दगी की तलाश है सो पी लेता हूँ।
थोडा सा जी लेता हूँ॥

होता है जब भी शुरू अपना सफ़र अपनी फ़तहयाबी के दौर का
आती हैं अडचने और जिच से रुक जाते हैं कदम तो पी लेता हूँ।
थोडा सा जी लेता हूँ॥

क्यों लगाये तोहमत पत्थरों पर, उनका तो काम ही है चोट देना
फ़ूलों की चादर में साथ ही साथ काँटे भी बोए जायें, तो पी लेता हूँ।
थोडा सा जी लेता हूँ॥

मुझसे शिकावा-शिकायत, गैरों की मोहब्बत पर यकीं आने लगा
गैरों के इस नसीब-मुकद्दर पर तब हमें होता है रश्क, तो पी लेता हूँ।
थोडा सा जी लेता हूँ॥

अपनो की गुलजार महफ़िल में बैठ कर भी मैं तनहा ही बना रहा
हर लुत्फ़ गुम चुका है, कहीं भी ढूँढे न मिले सुकूँ, तो पी लेता हूँ।
थोडा सा जी लेता हूँ॥

इस शहर में सभी हैं चैनो-आराम से आबाद, बस मैं ही तनहा रहा
यह सब सोंच के हुआ करता है मेरा मन भी उदास, तो पी लेता हूँ।
थोडा सा जी लेता हूँ॥

भटक रहा हूँ बनकर घायल पंछी, मैं जंगल-जंगल, बस्ती-बस्ती
बुझी-बुझी सी, थकी-थकी सी होती है जब-जब शाम तो पी लेता हूँ।
थोडा सा जी लेता हूँ॥


................................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


जिच=रुकावट

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