Thursday, November 17, 2011

{ ६९ } वो आब आता नही







बादलों में न जाने क्यों वो आब आता नहीं
हवाओं का रुख अब्र को हम तक लाता नहीं|

जिन दरख्तों के तले मिलती थी मुझे छाँव
उन दरख्तों तक अब मुझे कोई बुलाता नहीं|

मंजिलों को जा रहा अब कोई काफिला नहीं
उनके वास्ते अब कोई हौसला बढाता नही|

कुछ अल्फाज़ लगने लगते हैं शमशीर सरीखे
कोई उन अल्फाजों को शमशीर है थमाता कहीं|

मैं नहीं अशआर कहता गुनगुनाने के लिये ही
मेरे सुखन पढने वाला सोचता रह जाता कहीं|


................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


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