ये बादल जो उमडे हुए हैं, कहीं आसमान का काजल तो नहीं हैं
बीच में खिली धूप, कहीं आसमान का उघडा आँचल तो नहीं है।
चमन की मस्त-मस्त खुशबुओं को उडाती फ़िरती है हर तरफ़
ये मस्त हवायें, ये खिली हुई बहारें, कहीं ये पागल तो नही हैं।
कौंधती फ़िर रही, चमकती हैं बार-बार आसमान में बिजलियाँ
आने वाले किसी सुहाने से मौसम की कहीं ये पायल तो नहीं हैं।
आज तपिश का कहीं भी पता नहीं, अब तो साँझ भी घिर आई
जरा देखो तो, ओलों की बरसात में कहीं ये घायल तो नहीं हैं।
................................................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल
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