मन की सुनना,
मन की करना,
मन की सुनते जाना है।
मन ही काशी,
मन ही काबा,
मन ही बेद-पुराणा है।
मन अच्छा तो
जग अच्छा है,
ये मन का भेद पुराना है।
मन जब बच्चा है,
मन तब अच्छा है,
तब ही मन कल्याणा है।
मन चंगा तो
कठौती में गंगा
मन ही स्वर्ण-खजाना है।
मन के हारे हार
मन के जीते जीत
बस इतना ही मन को समझाना है।।
............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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