Sunday, October 27, 2013

{ २८० } आदमी कितना बेहाल हुआ





दर्दे-जीस्त से दिल बहुत बेहाल हुआ
पर अपने गुनाहों का न मलाल हुआ।

यूँ हीं न हुई खारजारी जीस्ते-रहगुजर
हैवान बना इंसान जी का जँजाल हुआ।

रो रही तमन्ना सुबक रहा है मुसाफ़िर
ज़िंदगी से आदमी कितना बेहाल हुआ।

अनगिनत तोड़ॆ है दिल और दरपन भी
पर कभी न बेवफ़ाई का खयाल हुआ।

तन्हाई में बैठ रो-रोकर बिता रहे दिन
अपनी ही ज़िंदगी पर खड़ा सवाल हुआ।


................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, October 17, 2013

{ २७९ } उदासी





इस मरुथली जीवन के
कण-कण में बसी है
एक हठीली उदासी।

जाने कहाँ-कहाँ से
बेहूदे खयाल
जेहन में आते हैं
और
गौरय्या की चंचल फ़ुदक
बालक की मनभावन किलक
चाँदनी की चम-चम चमक
बन जाते हैं कुछ ही क्षणॊं में
केंचुल उतारते हुए साँप,

नवयौवना के कँगन की मधुर धुन
बन जाती है कुछ ही क्षणों में
सर्प की डसती-फ़ुँफ़कारती गूँज।

जीवन के
इस तपते रेगिस्तान में
कभी
जमीं पर धुआँ सी
छा जाती उदासी
तो कभी
नीले अम्बर को
घेर लेती कालिमा भरी उदासी।

यही नहीं
क्षितिज से उतर
हर साँझ
पेड़ों पर आ बसती है उदासी,

और फ़िर
मौत से पहले घर
और मौत के बाद
श्मशान में छा जाती है उदासी।

मरुथली जीवन के
कण-कण में
बसी है उदासी।
बसी है उदासी।।


------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, October 14, 2013

{ २७८ } शाश्वत-जाल





मैं वह मनुष्य हूँ
जो कहलाता है
विधाता का सर्वश्रेष्ठ निर्माण
पर,
संसार से हूँ अब तक अग्यात
और कहलाता हूँ
अल्पग्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रमाण।

नहीं जानता कि,
फ़ूल हूँ मैं
किसी बहार का
या कि,
मूल हूँ मैं
समय की धार का।

यह भी नहीं जानता कि,
कहाँ से आया हूँ
कहाँ हमें जाना है
भटकता इस पहर से उस पहर तक
टकराता इस लहर से उस लहर तक।

बस यही जानता हूँ कि,
हम किसी के हाथ की कठपुतली है
जो हमें नचाता है,
अखिल ब्रह्माण्ड में
मन-माफ़िक घुमाता है।

हम पुतले,
ड़ूबे हैं तिमिर के ताल में
जकड़े हुए है
विधाता के शाश्वत-जाल में।।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, October 12, 2013

{ २७७ } नया संसार बसाया जाये





गमगीन दिलों के ज़ख्मों को सहलाया जाये
आओ चमन से रूठी बहारों को मनाया जाये।

टकरा के कहीं चूर-चूर न हो जायें ये आइने
आओ कि इन पत्थरों को फ़ूल बनाया जाये।

सहर होने को है मँजिल भी है बहुत करीब
मदहोश मयकशों को झकझोर जगाया जाये।

घर-घर की छतों-दरीचों में बैठे हैं साँप छुपकर
आओ बेसहारों को इस जहर से बचाया जाये।

आस के फ़लक पे आजाद परिंदे सा उड़ने को
आओ इस जहाँ में नया संसार बसाया जाये।


--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल