Saturday, January 29, 2011

{ २ } पीढी का दर्द





अक्सर सुनता था
बडे, बूढे और बुजुर्गों से
कि,
’वह जमाना कुछ और था’
या फ़िर
’बीते हुए जमाने की बात ही कुछ और थी।’

तब इन बातों का अर्थ
तो समझ में आता था,
परन्तु भाव को समझने में नाकाम था।

पर, अब
कुछ-कुछ भाव को भी
समझने लगा हूँ।

या यूँ कहूँ
कि भाव के आघात को
महसूस करने लगा हूँ।

नयी पीढी की
अन्धी दौड
और
अनुभव हीन सभ्यता के थपेडे
पीढियों के फ़र्क का
आभास करवा ही देते हैं,
और पिछली पीढी
टीस से भर कर कहती है, कि
’वह जमाना कुछ और था।’


............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



Friday, January 28, 2011

{ १ } दीवाना........





खुशी, मस्ती, रंगीनी से लबरेज़ मस्ताना हो जाये
एक नजर देख ले तू जिसको, तेरा दीवाना हो जाये।

कोई मजनू, फ़रहाद, हीर, दिल-अफ़्गार ही बन बैठे
तुझे अपनी महफ़िल में जो देखे वो परवाना हो जाये।

उठे जब तेरी कातिल नजर किसी मैगुसार की तरफ़
वो मदहोश, भूले जामो-मीना, खुद पैमाना हो जाये।

तुमको ख्वाबों में रखने वालों से हो तेरी भी आशनाई
दुआ है रब से मेरे महबूब से मेरा भी याराना हो जाये।

मैं समझूँगा मेरे प्यार, मेरे इश्क की ही ताबिश है ये
मेरी मोहब्बत का मशहूर अगर ये अफ़साना हो जाये।


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


दिल-अफ़गार = जख्मी दिल
मैगुसार = शराबी
ताबिश = जगमगाहट
अफ़साना = कहानी