शून्य में आकाश मेरी दृश्यता है,
पृथ्वी में रज-कण मेरा अँश हैं,
जल का प्रवाह मेरी कोमलता है,
प्रकाश का आभास मेरी कठोरता है,
वायु में बहाव मेरा रूप है,
अग्नि की ऊष्णता मेरा स्वरूप है,
यग्य की भस्म मेरी दृढ़ता है,
वनस्पतियों की जड़ मेरा विस्तार है,
पर्वत की उत्तुँगता मेरा स्वभाव है,
भग्नता के अवशेष मेरा प्रमाण हैं,
दिशाओं में गंतव्य मेरी साधना है,
संगीत की ध्वनि मेरी लयता है,
समुद्र का कोलाहल मेरा कँठ है,
क्योंकि मैं प्रकृति हूँ।
........... मैं प्रकृति हूँ।।
....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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