जाने क्या-क्या थे इरादे और क्या कर चले
जाने क्यों खुद को खुद से ही जुदा कर चले।
गुलजार चमन को उजाडने वाले कह रहे है
कहाँ अपने ही गुलशन को भुला कर चले।
सुकूँ मिल ही जायेगा इन काँटों की सेज पे
गुले-खुदगर्जी की सेज को ठुकरा कर चले।
गुनहगार हूँ जमाने का या कि मोहब्बत का
राह चले वफ़ा की पर ज़फ़ा कमा कर चले।
सपने बुनते-बुनते ही चकनाचूर हुए सपने
गमज़दा दिल मे टूटे सपने सजा कर चले।
........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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