Monday, March 18, 2013

{ २५४ } रूठ गईं चाँदनी रातें






जाने क्यों रूठ गयीं हमसे वो चाँदनी रातें
भूली-बिसरी यादें उनसे हुई वो मुलाकातें।

तुम्हे भी याद होंगे बहारों के सुनहरे पल
मुकद्दर की सौगातें मोहब्बत वाली रातें।

बिन बरसे गुजरे अब्रे-बाराँ ऐसा मैं सहरा
किस प्यासे पे हुई मोहब्बत की बरसातें।

नजर आती अपने यार की सूरत जो कहीं
दिल कहता ऐ खुदा हैं तेरी ही ये इनायाते।

फ़िर रहा दर-ब-दर जँजीरे-रुसवाई लिये
बन चुकी हैं तमाशा ज़िन्दगी की सौगाते।


........................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

अब्रे-बाराँ = पानी वाले बादल
सहरा = जँगल
जँजीरे-रुसवाई = बदनामी से जकडा हुआ


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