मन करता है मदमाते मौसम में फ़िर से
रागमयी गीतों के मादक स्वर हो जायें।।
वो ठहरी-ठहरी घडियाँ
वो महकी-महकी रातें
वो गहरी-गहरी साँसें
वो बहकी-बहकी बातें
भटकी चाहों की मृदु कलिका फ़िर से
उन्मादी घटा सी बौरायें, मुखर हो जायें।
मन करता है मदमाते मौसम में फ़िर से
रागमयी गीतों के मादक स्वर हो जायें।।१।।
मधुपल जिसमें हों लसित
रातों की मीठी मनुहारें
मन-आँगन के नन्दनवन में
मचलें तप्त तृषित बहारें
प्रबल प्रभंजन बन कर आयें श्वासें फ़िर से
प्रमुदित मन उत्तुँग लहर हो जाये।
मन करता है मदमाते मौसम में फ़िर से
रागमयी गीतों के मादक स्वर हो जायें।।२।।
वो दिन कितने प्यारे होंगें
वो शामें कितनी कोमल होंगी
वो सुखदायी मादक रातें
उन्मादी प्रणय-पल होंगीं
रँग-बिरँगी स्वर्णिम स्वप्न निशा में फ़िर से
समर्पित तन-मन से जीवन सुखकर हो जाये।
मन करता है मदमाते मौसम में फ़िर से
रागमयी गीतों के मादक स्वर हो जायें।।३।।
-------------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल
ऋतु के अनुकुल फागुनी मस्ती से सराबोर बासन्तिक उर्जा से भरा प्रण्य गीत। भाव और रस दोनो ही उत्कृष्ट।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत आभारी हूँ बन्धुवर रजनीश जी..
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