तट पर नदी के बैठे हुए नदी को जी भर देखते रहना
बीते दिनों की सुधियों को फ़िर नदी की धार से कहना।।
याद है वो पीपल की छाँव जहाँ हम-तुम
कभी बैठे हँसते हुए कभी रहे गुमसुम
वहाँ की सुधि पूछे तुम्हारी बेरुखी का कारण
कहता न कुछ भी बस देखता नदी का बहना।
तट पर नदी के बैठे हुए नदी को जी भर देखते रहना
बीते दिनों की सुधियों को फ़िर नदी की धार से कहना।।१।।
लिखे थे नाम उँगलियों से रेती पर जहाँ तुमने
डुबोये पाँव जहाँ पानी में उलीचा जल वहाँ हमने
तुम्हारे धार में उतरने की चपलता में रहे हम खोए
विस्मृत न होती है तुम्हारी देह से नदी का दहना।
तट पर नदी के बैठे हुए नदी को जी भर देखते रहना
बीते दिनों की सुधियों को फ़िर नदी की धार से कहना।।२।।
तैरता है जोड-बाकी सा विगत का अनुभव
नीड मे सोया हुआ है स्वप्न का कलरव
खूबसूरत स्वप्न में जब भी डूबता है मन
रुला देती मगर पल में विछोह का सहना।
तट पर नदी के बैठे हुए नदी को जी भर देखते रहना
बीते दिनों की सुधियों को फ़िर नदी की धार से कहना।।३।।
............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
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