Monday, November 26, 2012

{ २१६ } कहाँ खो गया मेरा आशियाँ





बदल बदल कर रूप
ज़िन्दगी में मिलती है
कभी छाँव ही छाँव
तो कभी धूप ही धूप।

रिश्तों का हरा-भरा मैदान
जाने क्यों लगने लगा अब
रण-क्षेत्र का
पथरीला, कँटीला बियावान।

हर तरफ़ अजीब सा
मचा हुआ है शोर
हो रहा भीषण घमासान
रिश्ते बन गये जंगे-मैदान।

हृदय में आस बसी है
अथाह समुद्र सी
जीवन के साहिल में
फ़ैली है सिर्फ़ रेती ही रेती।

खुशी खोखली हुई
ठठा कर हँस रहा गम
दर्द के सैलाब मे
सब खुशियाँ हुईं गुम।

थक चुका है मन
खँडहर हुआ तन का मकाँ
उखड चुके कदम
बता ऐ ज़िन्दगी !
कहाँ खो गया मेरा आशियाँ।।

-------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, November 24, 2012

{ २१५ } वो प्यार कहाँ है






जीवन के सफ़र की
हमसफ़र हैं
मेरी तनहाइयाँ।

मरुस्थल से
जीवन की
प्यास को बुझा रहे
आँखों से टपके आँसू।

इन पत्थरों के शहर में
बसते हैं
गूँगे-बहरे-स्वार्थी लोग
जो किसी की सुनते नहीं
सिर्फ़ अपनी कहते हैं।

इन पत्थरों के शहर मे
बुझे हुए चिरागों के मध्य
खोखली खुशियाँ हैं
हँसते हुए गम हैं
सुबुकती हुई आशायें हैं।

बेबसी
बेदिली
बेरुखी
इन पत्थरों के शहर की
असल पहचान हैं।

इन पत्थरों के शहर में
हृदय को छू लें
अपना बना लें
निराशा के बवन्डर से निकाल
आशा के आगोश मे समेट लें
अब वो प्यार कहाँ है...........।
..... वो प्यार कहाँ है............।।


............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, November 21, 2012

{ २१४ } प्यासा मन मयूर





जाने कैसा स्वप्न देख रहा है
ये प्यासा मन मयूर
नयनों में नयनों से झाँक रहा है
पर समझ न पाये
ये नयनों के छल-बल।

आशा भरे नयनों से
टटोल रहा है ये
उन पथरीले नयनों को।

उन पथरीले नयनों में
ढूँढ रहा है
अपने दर्द की परछाँईं
उन पथरीले नयनों में
ढूँढ रहा है
उनके हृदय की गहराई।

चुरा कर ले गये है
वो नयन सुख-चैन
विकल हो गया है मन
रो रहा है हृदय
पिघल रहा है दर्द।

पर वो निष्ठुर हृदय
दूर खडा मुस्कुरा रहा है
जाने क्यों फ़िर भी
लगता है जैसे
सपनों में वो आ रहा है।
उसका यह छल-बल
हृदय को भा रहा है।।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, November 16, 2012

{ २१३ } हम दीवानों की ऐसी हस्ती है





हम दीवानों की ऐसी हस्ती है
आज यहाँ हैं, कल वहाँ चले।
मस्ती का आलम साथ चला
हम धूल उडाते जहाँ चले।।

हम भला बुरा सब भूल चुके
नतमस्तक हो मुख मोड चले,
अभिशाप उठा कर माथे पर
वरदान दृगों से छोड चले।।

अब अपना और पराया क्या
आबाद रहें यहाँ रुकने वाले,
हम स्वयं बँधे थे और स्वयं ही
हम अपने बन्धन तोड चले।।

हम दीवानों की ऐसी हस्ती है
आज यहाँ हैं, कल वहाँ चले।।


------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल



Saturday, November 10, 2012

{ २१२ } आदमी, आदमी से डरने लगा है





आदमी इस जहाँ में आदमी से ही डरने लगा है
आँगन में अपने आदमी लाश सा सडने लगा है।

दरअसल सच कब का दफ़न हो चुका कब्र में
झूठ रँग-रोगन कर दिलों में धडकने लगा है।

खारज़ारों की भीड बढ गयी बागो-चमन में
गुलशन को अब यहाँ गुल ही खटकने लगा है।

धमनियों में लहू नही अब घुआँ ही बह रहा
अस्थियाँ समिधा हुईं, दिल दहकने लगा है।

आदमी अब बचे कहाँ हरतरफ़ प्रेत ही प्रेत है
हैवानियत की राह में इंसान जलने लगा है।


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, November 8, 2012

{ २११ } जख्म गहरे-गहरे हैं





पाँव के काँटे, रूह के नश्तर, जीवन-जीवन बिखरे हैं
मेरी प्यासी-प्यासी आँखों में जलते सावन बिखरे हैं।

जीत की शहजादियाँ कभी मिलती नहीं हैं खैरात में
ज़िन्दगी से जीतने को हम कफ़न-कफ़न बिखरे हैं।

दिखता नहीं कोई जो दर्दे-जीस्त का मदावा कर दे
हम तमाशा से हो गये, अँजुमन-अँजुमन उजडे हैं।

कोई तो आवाज आ जाती कहीं से वापस हो कर
ये अपने ही घर के कुऐं हुए कितने गहरे-गहरे हैं।

बहुत सोंच चुका मै फ़िर भी अभी एक सोंच में हूँ
जाने किस सोंच के लिये यहाँ अभी तक ठहरे हैं।


------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


अंजुमन = महफ़िल
मदावा = इलाज करना


Monday, November 5, 2012

{ २१० } मासूम दिल





फ़ूलों की सुगंध,
चाँद-तारों की रोशनी,
प्रकृति के रँग और गीत,
सभी मेरे जज्बात के कत्ल से
परिचित हैं--------

सिर्फ़
तुम नहीं----

मेरा मासूम दिल
दूरी का स्थायी कफ़न
ओढकर
दर्द के मरुस्थल में
गहरे तक दफ़न है,
और
मेरी हर साँस
आर्तनाद कर रही है----

याद है,
मुझे आज भी याद है,
वो दर्दनाक पल,
जब मेरा मासूम दिल
तुम्हारी मोहब्बत
न पाकर
एक प्यासे पँक्षी की मानिन्द
जमीन पर गिरा
और मुझे निहारकर
मर गया-----

मुझे लगा,
उस मासूम दिल के
कत्ल में
मेरा भी हाथ है शायद------


------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल