बदल बदल कर रूप
ज़िन्दगी में मिलती है
कभी छाँव ही छाँव
तो कभी धूप ही धूप।
रिश्तों का हरा-भरा मैदान
जाने क्यों लगने लगा अब
रण-क्षेत्र का
पथरीला, कँटीला बियावान।
हर तरफ़ अजीब सा
मचा हुआ है शोर
हो रहा भीषण घमासान
रिश्ते बन गये जंगे-मैदान।
हृदय में आस बसी है
अथाह समुद्र सी
जीवन के साहिल में
फ़ैली है सिर्फ़ रेती ही रेती।
खुशी खोखली हुई
ठठा कर हँस रहा गम
दर्द के सैलाब मे
सब खुशियाँ हुईं गुम।
थक चुका है मन
खँडहर हुआ तन का मकाँ
उखड चुके कदम
बता ऐ ज़िन्दगी !
कहाँ खो गया मेरा आशियाँ।।
-------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल