पाँव के काँटे, रूह के नश्तर, जीवन-जीवन बिखरे हैं
मेरी प्यासी-प्यासी आँखों में जलते सावन बिखरे हैं।
जीत की शहजादियाँ कभी मिलती नहीं हैं खैरात में
ज़िन्दगी से जीतने को हम कफ़न-कफ़न बिखरे हैं।
दिखता नहीं कोई जो दर्दे-जीस्त का मदावा कर दे
हम तमाशा से हो गये, अँजुमन-अँजुमन उजडे हैं।
कोई तो आवाज आ जाती कहीं से वापस हो कर
ये अपने ही घर के कुऐं हुए कितने गहरे-गहरे हैं।
बहुत सोंच चुका मै फ़िर भी अभी एक सोंच में हूँ
जाने किस सोंच के लिये यहाँ अभी तक ठहरे हैं।
------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल
अंजुमन = महफ़िल
मदावा = इलाज करना
बेहद उम्दा ... जय हो महाराज !
ReplyDeleteक्यूँ कि तस्वीरें भी बोलती है - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
भावों से भरी रचना गोपाल जी बधाई हो आपको
ReplyDeleteUmda rachna
ReplyDeletebehad umda,... behtareen..
ReplyDeleteachchha laga, yahan aakar:)
वाह ... बेहद सशक्त लेखन
ReplyDeleteसादर
सुन्दर रचना । आभार ।
ReplyDelete