खाक नींद आयेगी, जब यादे-दिलबर में दीदाए-बेदार होती हैं
आस्माँ में कभी चाँद-तारे कभी जुगुनुओं की कतार होती है।
लाजिम है किसी पर खुशियाँ लुटाना, किसी पर जान देना
यूँ उदास दिल औ’ तनहाई में कहाँ रंगीनिये-बहार होती है।
हम तो डूबे हैं इश्क में, मुश्किल है वापसी इश्क की गली से
इश्क में सब्र करना भी मुश्किल, इश्क तो नौ-बहार होती है।
दिलबर के हुस्न के ही दिलकश नजारे इस दिल पर छाए हैं
तसव्वुर से पुर ये तलावती रातें बडी दिल-अजार होती हैं।
दिन में ख्वाबों को तलाशते फ़िरते हैं हम गलियों-गलियों
ढलती हुई बेजान शामें मयखाने में ही पुर-खुमार होती है।
जानता हूँ मैं कि आसाँ नही होता दिलबर से दोस्ती करना
आशनाई में तो अपनी तमाम उम्र ही निसारे-यार होती है।
आबाद और खुशगवार करे जो किसी के इश्क की दुनिया
ऐसी गजल-सुखन-अशआर की आशिक को दरकार होती है।
............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
दीदाए-बेदार = खुली आँखें, जागना
रंगीनिये-बहार = बसन्त की शोभा
नौ-बहार = बसन्त ऋतु
तसव्वुर = कल्पना
पुर = भरा
तलावती = लम्बी
दिल-आजार = कष्टप्रद
पुर-खुमार = नशे में चूर
निसारे-यार = प्रेमी/प्रेमिका पर निछावर