पानी का ही एक बुलबुला है आदमी
गमों का एक सिलसिला है आदमी।
मोती से आँसुओं की सौगात मिली
दाह-दुख से हुआ कुचला है आदमी।
खुदाई दुनिया को मसान बना डाला
इन करतूतों का सिलसिला है आदमी।
अब ये आलम है अपने ही दामन को
खुद ही तार-तार कर चला है आदमी।
रोशनियाँ भी कब कहाँ भायी हैं उसको
अँधेरों से जब-जब निकला है आदमी।
बहके पाँव जब भी जीवन की रहगुजर में
गिर पडा, जब-जब भी सँभला है आदमी।
.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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