Wednesday, February 15, 2012

{ ८९ } ढूँढता हूँ





न खजानों को ढूँढता हूँ, न जागीरों को ढूँढता हूँ
करे ज़िन्दगी रोशन, उन सितारों को ढूँढता हूँ।

कायनात तुमसे है, लोग नाहक सवाल पूछते हैं
बेसब्र हूँ, छूटे फ़ुरकत, उन सहारों को ढूँढता हूँ।

मोहब्बत बेहिसाब, अब तो होश भी गवाँ बैठा
मासूम दिल तडपे, बिछडे बहारों को ढूँढता हूँ।

मद्धिम हुआ आफ़ताब, ऐसी है सिफ़त तुममे
चाँदनी रात में उन जैसे नजारों को ढूँढता हूँ।

परख आशिकी की, सीरत और नफ़ासत से है
जो मुझे बनाये सोना उन अँगारों को ढूँढता हूँ।

जब भी निकला इबादत को मैखाने चला गया
और भी हैं लोग ऐसे, उन दिलदारों को ढूँढता हूँ।

अपने रंगों को भर सकूँ मैं इस जमाने में यारों
ज़िन्दगी के फ़लक पर उन इशारों को ढूँढता हूँ।

शहर की बेरुखाई से अब तो जी भर चुका मेरा
सुकूँ के लिये बियाबान मे दियारों को ढूँढता हूँ।

मै ढूँढता हूँ यहाँ-वहाँ, जाने क्या-क्या ढूँढता हूँ
तलाश अब भी बाकी उन निर्विकारों को ढूँढता हूँ।


............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


कायनात=ब्रह्मांड
फ़ुरकत=जुदाई
आफ़ताब=सूर्य
सिफ़त=खूबी
सीरत=गुण
नफ़ासत=मृदुलता
फ़लक=आसमान, चित्र-पटल
दियारा=दीपक
निर्विकार=आत्म-तत्व



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