Thursday, February 16, 2012

{ ९० } वक्त





वक्त कब कहाँ ठहरा है।

वक्त तो अन्धा-बहरा है
वक्त पर बैठा पहरा है
कभी यह लगे सुनहरा है
कभी यह बहुत गहरा है।
वक्त कब कहाँ ठहरा है।।

वक्त करता उत्साह निराला है
वक्त कभी सफ़ेद कभी काला है
वक्त आफ़त का परकाला है
वक्त ही प्राणों का रखवाला है
वक्त से ही आदमी सिहरा है।
.....वक्त कब कहाँ ठहरा है।।

वक्त भाग्य हमारा लिखता है
वक्त नही किसी को दिखता है
वक्त हमको कभी अखरता है
वक्त सब का जरूर निखरता है
तब हम कहते वक्त सुनहरा है।
........वक्त कब कहाँ ठहरा है।।

वक्त कराता है आत्म-दर्शन
वक्त सिखाता न करो प्रदर्शन
वक्त ही बताता करो निदर्शन
वक्त ही वक्त का आकर्षण
सब से नाता वक्त का गहरा है।
........वक्त कब कहाँ ठहरा है।।


................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


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