बेवजह पूछता है ये जमाना कि मैं क्यॊ पी लेता हूं,
कितना सताया जालिम ने, सोचता हूं तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।
मोहब्बत की दुनिया का है वो एक अनमोल रतन,
देखे जब-जब वो काफ़िर नजरों से तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।
शबो-रोज़ मेरे खयालों में रहां करता है जो चेहरा,
वो ही ढाये कहर पर कहर दिल पे, तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।
इबादत मेरी उससे ही शुरू औ’ उसी पे खत्म होती है,
तो क्यों मै बुतकदे जाऊं ? आओ, चलो पी लेता हूं ।
थोडा सा जी लेता हू ।।
बडे खुशनसीब है वे रिसाले जो संजोये हैं उसके खत,
देखूँ जब भी मै वो रिसाले तो मौज में ही पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।
जिस तस्वीर को भुलाये हुए एक जमाना बीत गया,
वो आये और मेरे पहलू में बैठ जाये तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।
बस चार पल थे वस्ल के, दो-चार घडियां प्यार की,
वे यादें-मुलाकातें दिल मे है, खामोशी से पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।
बस एक रात की ही मुलाकात मिली, ये तकदीर है,
कल की किसे है खबर, चलो, थोडी सी पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हू ।।
लोग हंस कर पूछते हैं जब भी मेरी तनहाई का सबब,
उसका चेहरा और आंसू आते आंखो मे, तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।
................................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
काफ़िर नजर=प्रेम भरी नजर, शबो-रोज़=दिन-रात,
बुतकदा=मंदिर, रिसाले=किताबें, वस्ल=पिया मिलन,
बुतकदा=मंदिर, रिसाले=किताबें, वस्ल=पिया मिलन,
"लोग हस कर पूछते हैं जब मेरी तन्हाई का सबब मुझसे .तो आता है उसका चेहरा और अनसु आँखों में तो पी लेता हूँ थोडा सा जी लेता हूँ .."वाह वाह लाजवाब!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति .....!!
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