उसके नयनों की भाषा
जानी पहचानी थी
पर न जाने क्यो
अब मेरे लिये अबूझ हुई ।
उसके साँसों की मधुर गन्ध
थी भीनी-भीनी मिठास लिये
पर न जाने क्यों
अब वह मुझसे रूठ गयी ।
उसके पुष्प-पाँखुरी जैसे होठ
थे मीठे बोलों वाले
पर न जाने क्यो
अब वह मुझसे अबोल हुए ।
उसके अन्तर्हास की दन्तावलियाँ
थी मेरे अन्तस की शमता
पर न जाने क्यों
अब वह मेरे लिये निरुध्द हुई ।
उसके काले मेघों जैसे केशों की वेणी
थी मेरी गंगा-यमुना
पर न जाने क्यो
अब वह मेरे लिये पंकिल हुईं ।
उसके पाँवों के पायल की रुनझुन
था मेरा बसन्त गीत
पर न जाने क्यों
अब वह मेरे लिये बिरहा हुई ।
पाई सजा विरह की
जान न पाया अपना दोष
मिलेगा कभी तो तुम्हारा साथ
अब तो निरन्तर बस यही आस ॥
....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
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