इस कैद से रिहाई का परवाना मिल जाये, तो चलूँ,
इन सांसों को आखिरी ठिकाना मिल जाये, तो चलूँ ।
ज़िन्दगी से हुई कुछ ऐसी आशनाई कि मदहोश हूँ,
पहले जरा मै कुछ होश में तो आ जाऊं, तो चलूँ ।
ज़िन्दगी की हमसफ़र है सिर्फ़ खामोंशियाँ ही मेरी,
कुछ तो सुना दूँ इन आँसुंओं की दास्तां, तो चलूँ ।
साथ चल रहे तमाम लोग, सब की अपनी मंजिले,
तनहा, सफ़र मे, एक शीरो-शकर बना लूं, तो चलूँ ।
औरों के ख्वाब हकीकत मे बदलते ज़िन्दगी बीत गई,
वक्त अब खुद के लिये निकालूँ और जी लूँ, तो चलूँ ।
ख्वाबों को बुनता रहा और ख्वाबों को ही जीता रहा,
आखिरी वक्त अब कुछ तो सबाब बना लूँ, तो चलूँ ।
अब सफ़र खत्म हो चला, शमा भी अब बीमार हुई,
अपनी ताजा गजल लिखूँ और गुनगुना लूँ तो चलूँ ।
................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
1- शीरो-शकर=अभिन्न मित्र
2- सबाब=पुण्य
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