कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है......।
खुशियों के चमन के फूलों की पाँखेँ
काँटों से सजी सेज हो जाती है......
पोर-पोर तक थक कर चूर हुए दिन की
उखड़ती साँसें तेज हो जाती हैं......
अम्बर को भेदते शिखरों का मस्त राही
रपटीली ढ़ालों पर हाफने सा लगता है......।
कँगूरों पर जब शाम उतर आती है
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है......।।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल