उठते संशय भी दो-एक,
हम एक गाँठ खोलते
गुत्थियाँ उलझ जाती अनेक।
अपनों को ठुकराना,
गैरों को गले लगाना।
अपनों से है बैर
गैरों की पूँछें खैर।
अपनों के आने से उदास,
गैरों के स्वागत में उल्लास।
अपने हो गये पहेली,
गैरों से होती अठखेली।
धुंध भरा काला साया,
मन में सबके छाया।
पर, मैं तो बस यही कहता
वक्त कैसा भी आए सामने
अपना किरदार कभी मत गिराओ।
अपने से अपनों को कभी मत भुलाओ।।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
No comments:
Post a Comment