Wednesday, December 30, 2015

{ ३२० } रे ! मूढ़ मानव





रे ! मूढ़ मानव
क्यूँ ढूँढ़ रहा
इन छली मानवों के
बनावटी मुखौटों के बीच
धुँधले हो चुके
आईने में
अपना चेहरा.........

जब तेरे ही
आँसुओं से
धुल कर
होगा साफ़
आइना दिलों का
तभी दिखेगा
मुस्कुराता हुआ
तेरा अपना चेहरा........

तब तक
तू चेष्टा कर कि
आँखों में
बर्फ़ की मानिन्द
जम चुके आँसू
पिघल कर
बहने को तत्पर हों
और मुस्कुराता हुआ
दिख सके
तेरा अपना चेहरा..........।।

................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर चिंतनशील रचना ...
    नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं!

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